11.निश्चय-परमावश्यक अधिकार श्री नियमसार हिंदी पद्धानुवाद Shri Niyamsar Hindi Gatha 141 to 158
Автор: VJainStro Presented By Vijaya Jain
Загружено: 2018-05-26
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निश्चय-परमावश्यक अधिकार श्री नियमसार हिंदी पद्धानुवाद
नहिं अन्यवश जो जीव, आवश्यक करम होता उसे ।
यह कर्मनाशक योग ही निर्वाणमार्ग प्रसिद्ध रे ॥१४१॥
जो वश नहीं वह ‘अवश', आवश्यक अवशका कर्म है ।
वह युक्ति है वह यत्न है, निरवयव कर्ता धर्म है ॥१४२॥
वर्ते अशुभ परिणाममें, वह श्रमण है वश अन्यके ।
अतएव आवश्यकस्वरूप न कर्म होता है उसे ॥१४३॥
संयत चरे शुभभावमें, वह श्रमण है वश अन्यके ।
अतएव आवश्यकस्वरूप न कर्म होता है उसे ॥१४४॥
जो जोड़ता चित द्रव्य-गुण-पर्यायचिन्तनमें अरे ! ।
रे मोह-विरहित-श्रमण कहते अन्यके वश ही उसे ॥१४५॥
जो छोड़कर परभाव ध्यावे शुद्ध निर्मल आत्म रे ।
वह आत्मवश है श्रमण, आवश्यक करम होता उसे ॥१४६॥
आवश्यका कांक्षी हुआ तू स्थैर्य स्वात्मामें करे ।
होता इसीसे जीव सामायिक सुगुण सम्पूर्ण रे ॥१४७॥
रे श्रमण आवश्यक-रहित चारित्रसे अतिभ्रष्ट है ।
अतएव आवश्यक करम पूर्वोक्त विधिसे इष्ट है ॥१४८॥
रे साधु आवश्यक सहित वह अन्तरात्मा जानिये ।
इससे रहित हो साधु जो बहिरातमा पहिचानिये ॥१४९॥
जो बाह्य अन्तर जल्पमें वर्ते वही बहिरातमा ।
जो जल्पमें वर्ते नहिं वह जीव अन्तरआतमा ॥१५०॥
रे धर्म-शुक्ल-सुध्यान-परिणत अन्तरात्मा जानिये ।
अरु ध्यान विरहित श्रमणको बहिरातमा पहिचानिये ॥१५१॥
प्रतिक्रमण आदिक्रिया तथा चारित्रनिश्चय आचरे ।
अतएव मुनि वह वीतराग-चारित्रमें स्थिरता करे ॥१५२॥
रे ! वचनमय प्रतिक्रमण, वाचिक-नियम, प्रत्याख्यान ये ।
वाचिक सभी आलोचना को जान तू स्वाध्याय रे ॥१५३॥
जो कर सको तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदिक कीजिये ।
यदि शक्ति हो नहिं तो अरे श्रद्धान निश्चय कीजिये ॥१५४॥
कर परीक्षा प्रतिक्रमण आदिक की परम-जिनसूत्रमें ।
रे साधिये निज कार्य अविरत साधु ! रत व्रत मौनमें ॥१५५॥
हैं जीव नाना, कर्म नाना, लब्धि नानाविध कही ।
अतएव ही निज-पर समयके साथ वर्जित वाद भी ॥१५६॥
निधि पा मनुज तत्फल वतनमें गुप्त रह ज्यों भोगता ।
त्यों छोड़ परजनसंग ज्ञानी ज्ञान निधिको भोगता ॥१५७॥
यों सर्व पौराणिक पुरुष आवश्यकोंकी विधि धरी ।
पाकर नियत अप्रमत्त स्थान हुए अरे प्रभु केवली ॥१५८॥
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