12.शुद्धोपयोग अधिकार श्री नियमसार हिंदी पद्धानुवाद Shri Niyamsar Hindi Gatha 159 to 187
Автор: VJainStro Presented By Vijaya Jain
Загружено: 2018-06-03
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शुद्धोपयोग अधिकार श्री नियमसार हिंदी पद्धानुवाद
व्यवहारसे प्रभु केवली सब जानते अरु देखते ।
निश्चयनयात्मक-द्वारसे निज आत्मको प्रभु पेखते ॥१५९॥
ज्यों ताप और प्रकाश रविके एक सँग ही वर्तते ।
त्यों केवलीके ज्ञानदर्शन एक साथ प्रवर्तते ॥१६०॥
दर्शन प्रकाशक आत्मका, परका प्रकाशक ज्ञान है ।
निज पर प्रकाशक आत्मा,रे यह विरुद्ध विधान है ॥१६१॥
पर ही प्रकाशे ज्ञान तो हो ज्ञानसे दृग भिन्न रे ।
परद्रव्यगत नहिं दर्श ! वर्णित पूर्व तव मंतव्य रे ॥१६२॥
पर ही प्रकाशे जीव तो हो आत्मसे दृग् भिन्न रे ।
परद्रव्यगत नहिं दर्श - वर्णित पूर्व तव मंतव्य रे ॥१६३॥
व्यवहारसे है ज्ञान परगत, दर्श भी अतएव है ।
व्यवहारसे है जीव परगत, दर्श भी अतएव है ॥१६४॥
है ज्ञान निश्चय निजप्रकाशक ,अतः त्यों ही दर्श है ।
है जीव निश्चय निजप्रकाशक, अतः त्यों ही दर्श है ॥१६५॥
प्रभु केवली निजरूप देखें और लोकालोक ना ।
यदि कोइ यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? ॥१६६॥
जो मूर्त और अमूर्त जड़ चेतन स्वपर सव द्रव्य हैं ।
देखे उन्हें उसको अतीन्द्रिय ज्ञान है, प्रत्यक्ष है ॥१६७॥
जो विविध गुण पर्यायसे संयुक्त सारी सृष्टि है ।
देखे न जो सम्यक् प्रकार, परोक्ष रे वह दृष्टि है ॥१६८॥
भगवान केवलि लोक और अलोक जाने, आत्म ना ।
यदि कोई यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? ॥१६९॥
है ज्ञान जीवस्वरूप, इससे जीव जाने जीवको ।
निजको न जाने ज्ञान तो वह आतमासे भिन्न हो ॥१७०॥
संदेह नहिं, है ज्ञान आत्मा, आतमा है ज्ञान रे ।
अतएव निजपरके प्रकाशक ज्ञान-दर्शन मान रे ॥१७१॥
जाने तथा देखें तदपि इच्छा विना भगवान है ।
अतएव ‘केवलज्ञानी' वे अतएव ही ‘निर्बन्ध' है ॥१७२॥
रे बन्ध कारण जीवको परिणामपूर्वक वचन हैं ।
है बन्ध ज्ञानीको नहीं परिणाम विरहित वचन है ॥१७३॥
है बन्ध कारण जीवको इच्छा सहित वाणी अरे ।
इच्छा रहित वाणी अतः ही बन्ध नहिं ज्ञानी करे ॥१७४॥
अभिलाषयुक्त विहार, आसन, स्थान जिनवरको नहीं ।
निर्बन्ध इससे, वन्ध करता मोह-वश साक्षार्थ ही ॥१७५॥
हो आयुक्षयसे शेष सव ही कर्मप्रकृति विनाश रे ।
सत्वर समयमें पहुँचते अर्हन्तप्रभु लोकाग्र रे ॥१७६॥
विन कर्म, परम, विशुद्ध, जन्म-जरा-मरणसे हीन है ।
ज्ञानादि चार स्वभावमय, अक्षय, अछेद, अछीन है ॥१७७॥
निर्वाध, अनुपम अरु अतीन्द्रिय, पुण्यपापविहीन है ।
निश्चल, निरालम्बन, अमर-पुनरागमनसे हीन है ॥१७८॥
दुख-सुख नहीं, पीड़ा जहाँ नहिं और बाधा है नहीं ।
नहिं जन्म है, नहिं मरण है, निर्वाण जानो रे वहीं ॥१७९॥
इन्द्रिय जहाँ नहिं, मोह नहिं, उपसर्ग, विस्मय भी नहीं ।
निद्रा, क्षुधा, तृष्णा नहीं, निर्वाण जानो रे वहीं ॥१८०॥
रे कर्म नहिं नोकर्म, चिंता, आर्तरौद्र जहाँ नहीं ।
है धर्म-शुक्ल सुध्यान नहिं, निर्वाण जानो रे वहीं ॥१८१॥
दृग्-ज्ञान केवल, सौख्य केवल और केवल वीर्यता ।
होते उन्हें सप्रदेशता, अस्तित्व, मूर्तिविहीनता ॥१८२॥
निर्वाण ही तो सिद्ध है, है सिद्ध ही निर्वाण रे ।
हो कर्मसे प्रविमुक्त आत्मा पहुँचता लोकान्त रे ॥१८३॥
जानो वहीं तक जीव-पुद्गलगति, जहाँ धर्मास्ति है ।
धर्मास्तिकाय-अभावमें आगे गमनकी नास्ति है ॥१८४॥
जिनदेव-प्रवचन-भक्तिवलसे नियम, तत्फलमें कहे ।
यदि हो कहीं, समयज्ञ पूर्वापर विरोध सुधारिये ॥१८५॥
जो कोइ सुन्दर मार्गकी निन्दा करे मात्सर्यमें ।
सुनकर वचन उसके अभक्ति न कीजिये जिनमार्गमें ॥१८६॥
निज भावना के निमित्त मैंने नियमसार सुश्रुत लिखा ।
सब दोष पूर्वापर रहित उपदेश जान जिनदेवका ॥१८७॥
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