बधाईबधाई कृपानिधानश्रीकल्याणराय स्वरश्रीविठ्ठलदासबापोदराऔरबीनामहेतारागमिश्र षडजतालतीनतालपुष्टीभक्ति
Автор: Manhar Bapodara
Загружено: 2025-11-11
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बधाई बधाई कृपा निधान श्री कल्याण राय स्वर श्री विठ्ठलदास बापोदरा और बीना महेता राग मिश्र षडज कौशिक धैवत ताल तीनताल पुष्टी भक्ति सरल भक्ति संगीत पुष्टि यमुने भजो
@manharbapodara9902
पद का संक्षेप सार
यह पद कल्याणरायजी श्रीनाथजी के ही रूप) की मधुर किशोर मूर्ति का “स्वरूप-स्मरण” है।
भक्त (सेवक) अपने नयन-मन से प्रभु की सजीव मूर्ति का “दर्शन-भाव” करता है —
जैसे सेवा में खड़े होकर ठाकुरजी को निहार रहा हो।
यह पद “माधुर्य प्रधान साकार दर्शन-भावना” का अनुपम उदाहरण है।
भावानुसार रसविभाजन
१) कृपानिधि श्री कल्याणराय — दीनभाव और कृपाभाव
भक्त पहले ही शब्द में “कृपानिधि” कहकर अपने स्वस्वरूप का अनुभव करता है —
“मैं दीन, अधम, निर्बल हूँ; और आप कृपा के सागर।”
यहाँ दास्यभाव से प्रवेश होता है।
यही भाव “सेवा का द्वार” है — बिना दीनभाव के सेवा सुलभ नहीं।
२) मधुर मधुर मधुरपति सुंदर — माधुर्य भाव का उदय
त्रिवार “मधुर” कहकर भक्त अपनी वाणी से माधुर्य रस का अनुभव गूंजा देता है।
यह कोई शब्द नहीं — यह रस की लहर है।
यहाँ सेवक अपने इष्टदेव के मुखारविंद, नेत्र, नासिका आदि की स्मरण-सेवा करता है। सेवा दृष्टि में अर्थ:
सेवक “मंगल आरती” या “शृंगार के पश्चात दर्शन” के समय यह पद गाता है,
जहाँ ठाकुरजी का मुख-सौंदर्य प्रकट है।
३) मधुरकृति शोभित, हिय में बसी जाय — साक्षात्कार भाव
यहाँ “अंतरदृष्टि में दर्शन” है —
भक्त कहता है: प्रभु का रूप बाहर नहीं, मेरे हृदय में बस गया है।
यह अभिन्नता-भाव (स्वरूपानुभूति) का संकेत है।
पुष्टिभाव:
जब कृपा से प्रभु अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराते हैं, तब भक्त के हृदय में “अनन्यता” का भाव जागृत होता है।
४) कुवलयदल श्यामल वपु सोहे — श्याम माधुर्य दर्शन
यहाँ भक्त नीलवर्ण के श्याम शरीर का ध्यान करता है —
जैसे नील कमल की शीतल छाया में प्रभु झलकते हों।
सेवा स्थिति:
यह प्रातःकाल का शृंगार-दर्शन हो सकता है — जब ठाकुरजी नए वस्त्र, नवीन आलंकार से सजे हों।
भक्त का नेत्र और मन दोनों प्रभु के रंग-रूप में लीन हो जाते हैं।
५) कसुंबल पाग, मोरचंद्रिका... नखशिख सुंदर — अलंकार माधुर्य
अब भक्त शृंगार-दर्शन के प्रत्येक अंग का रसिक ध्यान करता है —
पाग, सिरपेच, कलगी, मोती की लटकन —
यह सब केवल सौंदर्य नहीं, यह सेवा का अंग-परिधान भाव है।
पुष्टिमार्ग में भावार्थ:
भक्त जब ठाकुरजी की सेवा में वस्त्राभूषण अर्पित करता है,
तो यह उसके भावसहित अर्पण का रूप है —
प्रत्येक अलंकार प्रेम से युक्त है, जैसे “कृपा-भेट” हो।
६) पितवर त्रिवलि, तिलक, द्रगनसों बुलाय — सौंदर्य और सजीवता
यहाँ प्रभु का रूप स्थिर नहीं, सजीव है।
उनकी आँखें “कुछ कहती हैं” —
यानी यह रसिक संवाद का क्षण है,
जहाँ ठाकुरजी और भक्त के बीच मौन प्रेम-वार्ता होती है।
रसदृष्टि:
यह माधुर्य रस का उच्च स्तर है —
भक्त के लिए ठाकुरजी अब प्रतिमा नहीं, जीवंत प्रियतम हैं।
७) चतुर्भुज चहुँ आयुधधारी — लीला भाव
यहाँ प्रभु के “अंशरूप” का स्मरण है —
संपूर्ण ऐश्वर्य सहित फिर भी ब्रजभाव में खेलते हुए।
पुष्टिमार्ग में दृष्टि:
भक्त जानता है कि प्रभु सर्वशक्तिमान हैं,
परंतु वह केवल उनके लीलामाधुर्य को ही चाहता है,
क्योंकि वहीं “पुष्टि-रस” प्रकट होता है।
८) मंद मंद मुसकाय सांवरो — मुरली माधुर्य
अब रस अपनी चरम स्थिति में पहुँचता है।
प्रभु की मृदुल मुस्कान और अधर पर मुरली का स्पर्श —
यह मुरली-भाव का दर्शन है, जो गोपिकाभाव का प्रतीक है।
सेवा-रस में अर्थ:
यह संध्या या निकुंज लीला ध्यान का भाव है
जहाँ ठाकुरजी मंद मुस्कान सहित भक्त के हृदय को मोह लेते हैं।
९) ईनके शरण रहो सब आय — परिपूर्ण शरणागति
अंत में भक्त सबको संदेश देता है —
“इनके सिवा कोई आश्रय नहीं।”
पुष्टिमार्गीय मूलभाव:
यहाँ “शरण” शब्द पूर्ण समर्पण का पर्याय है।
जब जीव सब अहंकार त्यागकर केवल कृपा पर आश्रित होता है,
तभी वह “पुष्टि-भक्त” कहलाता है।
समग्र रस-सिद्धान्त
तत्व रसभाव सेवा-दृष्टि
कृपानिधि दीनभाव कृपा-प्रार्थना
मधुर माधुर्य रूप-रस शृंगार-दर्शन
नंदनंदन रूप लीलाभाव ब्रजस्मरण
मुरली मुस्कान माधुर्य-प्रेम अंतर्मुखी भक्ति
शरणागति सिद्धि-भाव आत्म-समर्पण
निष्कर्ष भाव
यह पद केवल “वर्णन” नहीं है,
यह एक “सेवा-साधना” है —
जहाँ प्रत्येक शब्द, वस्त्र, मुस्कान और दृष्टि के पीछे
भक्त का आत्मीय प्रेम और स्वानुभव की लहर प्रवाहित होती है।
इस पद का रस “माधुर्य + दास्य + अनन्यता + शरणागति” के संयोग से बना है —
जो वल्लभाचार्यीय पुष्टिमार्ग के चार प्रमुख रसरूपों का सार है।_
PUSHTI MARGIY BHAKTI SARAL HAVELI SANGEETPAD
SHREE KALYANRAY PRABHU KA MANORATH PRASANGE BADHAAI
RAGA :BHINN SHADAJKAUSHIK DHAIVAT DHWANI
TAL :TINTAAL
SING BY SHRI VITHALDAS VALLABHDAS BAPODARA,BINA MAHETA
WRITTEN BY SHREE INDIRABETIJI MAHODAYA
SANKALAN AND PUBLISH BY MANHARLAL VITHALDAS BAPODARA MOBILE NO.9824635506
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