भक्त श्री मार्कण्डेय जी का पापनाशक चरित्र shri premanand ji Maharaj
Автор: Motive Gyan
Загружено: 2024-04-30
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भगवान ब्रह्मा के शिष्य, मार्कंडेय ऋषि हिंदू परंपरा से हैं, जो ऋषि भृगु के वंश में पैदा हुए थे। ऋषि मार्कंडेय ने बलपूर्वक धार्मिक अभ्यास (हठ योग) करके सिद्धियाँ प्राप्त कीं और ब्रह्म-काल तक पूजा की। ध्यान करते हुए उनकी एकाग्रता ब्रह्मलोक (जिसे महास्वर्ग भी कहा जाता है) तक पहुँच जाती थी। मार्कंडेय ऋषि अपनी उपासना को श्रेष्ठ मानते थे लेकिन सच तो यह था कि शास्त्र अनुकूल साधना ना होने के कारण उन्हें काल के जाल से मुक्ति नहीं मिल सकी।
आइए आगे बढ़ते हुए सच्ची कहानियों के आधार पर यह समझने की कोशिश करें कि वास्तव में काल का जाल क्या है और किस प्रकार निर्दोष आत्माएँ इस काल के जाल में फंसी रहती हैं।
ब्रह्मा जी का एक दिन 1008 चतुर्युग है
एक चतुर्युग=सतयुग+त्रेतायुग+द्वापरयुग+कलयुग अर्थात कुल 43.20 लाख वर्ष।
भगवान इंद्र की आयु 72 चतुर्युग है। इन वर्षों के लिए शासन पूरा करने के बाद इंद्र की मृत्यु हो जाती है और एक अन्य योग्य आत्मा स्वर्ग के राजा का पद पा लेती है। ऐसे 14 इंद्र एक महारानी उर्वशी के पति बनते हैं।
यह दर्शाता है, भगवान इंद्र की रानी की आत्मा यानी उर्वशी ने किसी मानव जन्म में इतने शुभ कर्म किए होंगे कि वह इतनी लंबी अवधि के लिए स्वर्ग में विलासिता का आनंद लेती है और स्वर्ग के 14 राजाओं के साथ सहवास का आनंद लेती है।
तब ऋषि मार्कंडेय ने कहा 'वे 14 इंद्र भी मरेंगे, तो आप क्या करोगी?' अप्सरा उर्वशी ने उत्तर दिया 'मैं मृत्यु के बाद गधी बनूंगा और पृथ्वी पर जीवन बिताऊंगी, ऐसा ही उन सभी 14 इंद्रों के साथ होगा। वे पृथ्वी पर गधे का जीवन प्राप्त करेंगे'।
मार्कंडेय ऋषि ने कहा 'तो फिर तुम मुझे ऐसे लोक में क्यों ले जा रही हो, जिसका राजा मृत्यु के बाद गधा बन जाता है और रानी गधी का जीवन प्राप्त करती है?'
उर्वशी ने जवाब दिया अपने सम्मान की रक्षा के लिए, नहीं तो सब लोग मुझे ताने देंगे'। मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि गधियों की कैसी इज्जत ? तू वर्तमान में भी गधी है क्योंकि तू चौदह खसम (वर) करेगी और मृत्यु उपरांत तू स्वयं स्वीकार रही है कि मैं गधी बनूंगी । उर्वशी परेशान होकर वहां से लौट गई।
विधानानुसार अपना इन्द्र का राज्य, मार्कण्डेय ऋषि को देने के लिए वहीं पर इन्द्र आ गया और कहा कि ऋषि जी हम हारे और आप जीते । कृपया इंद्र की पदवी स्वीकार करें। मार्कंडेय ऋषि ने कहा इंद्र! मेरे लिए इंद्र की उपाधि किसी काम की नहीं है। मेरे लिए, यह एक कौवे की बीट के समान है'।
ऋषि मार्कंडेय ने भगवान इंद्र से कहा कि 'जैसा मैं तुमसे कहता हूं, तुम पूजा करो, मैं तुम्हें 'ब्रह्मलोक' (जिसे महास्वर्ग भी कहा जाता है) ले जाऊंगा। वहाँ तुम्हारे जैसे करोड़ों इन्द्र हैं; जिन्होंने मेरे पैर छुए हैं। तुम ब्रह्मा, विष्णु और शिव की पूजा छोड़कर ब्रह्म-काल की पूजा करो। ब्रह्मलोक में साधक को युगों (कल्प) से मुक्ति मिलती है। स्वर्ग के राजा के इस सिंहासन को छोड़ दो'।
परंतु भगवान इंद्र ने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि 'ऋषि जी मुझे अभी सुखों का आनंद लेने दो, मैं बाद में देखूंगा'।
ऋषि मार्कंडेय ब्रह्म की तपस्या में थे और उसे श्रेष्ठ मान रहे थे। इसलिए उन्होंने इंद्र से कहा कि 'मैं तुम्हें ब्रह्म की पूजा बताऊंगा'। ब्रह्मलोक की तुलना में स्वर्ग के सुख बहुत कम हैं, एक कौवे की बीट के समान।
नोट: गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में पवित्र गीता का ज्ञान दाता ब्रह्म-काल कहता है कि उसकी उपासना भी अनुत्तम है। महर्षि मार्कंडेय जी उस स्तर की भक्ति को ही श्रेष्ठ समझकर कर रहे थे और इन्द्र को भी वह पूजा करने की सलाह दे रहे थे।
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