श्रीमद् गुरुघासीदास अमृतसंदेशः ॥ सर्गः २ — आदिसर्गः जन्मकथा व बाल्यचरितम् 1-20 | भाग 2 |
Автор: HPJoshi Official
Загружено: 2025-12-02
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॥ श्रीमद् गुरुघासीदास अमृतसंदेशः सर्गः २ — आदिसर्गः जन्मकथा व बाल्यचरितम् 1-20॥
सतनाम के दिव्य तत्व, गुरु वंदना और मानवता के लिए आशीर्वचन के साथ यह एक आध्यात्मिक और ज्ञानपूर्ण रचना है। इसमें सत्य, दया, समानता और सतनाम को ब्रह्मरूप में स्थापित किया गया है।
✨ मुख्य भावः
सतनाम स्तुति
गुरु बाबा के प्रति श्रद्धा
पंचतत्त्व दर्शन
मानवता, सत्य और समानता का संदेश
✍ लेखक : श्री हुलेश्वर प्रसाद जोशी
🔔 इस आध्यात्मिक वाणी को अवश्य सुनें और सतनाम के अमृत संदेश को अपने जीवन में धारण करें।
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॥ श्रीमद् गुरुघासीदास अमृतसंदेशः ॥
सर्गः २ — आदिसर्गः — जन्मकथा व बाल्यचरितम् (श्लोक १–६०)
जयन्ति सत्यपुरुषो महान्, सत्यधर्मप्रचारकः।
घासीदासो गुरुर्नित्यं, सतनामस्य रक्षकः॥१॥
महान सत्यपुरुष गुरु घासीदास ने सत्यधर्म का प्रचार कर मानवता को जाग्रत किया। वे सतनाम के रक्षक, सत्य के प्रवर्तक और सदैव लोककल्याण के मार्गदर्शक हैं, जिनके उपदेश आज भी जनमानस में सत्य, प्रेम और समानता की भावना जगाते हैं।
माघपौर्णमास्यां दिव्यां, सोमवारे शुभे दिने।
जगज्ज्योतिः अवतीर्णो, घासीदासो दयानिधिः॥२॥
माघ पूर्णिमा के पवित्र सोमवार को जगतज्योति, करुणामय गुरु घासीदास का अवतरण हुआ। उन्होंने अपने सत्योपदेशों से संसार को अज्ञान और अन्याय के अंधकार से मुक्त कर, दया, सेवा और समानता का संदेश दिया, जिससे समाज में प्रकाश और मानवता का भाव फैला।
गिरौदपुरी ग्रामे रम्ये, शान्तभूमौ सुशोभिते।
तत्रैव जन्म लब्धं तु, सत्यावतारस्य धीमतः॥३॥
गिरौदपुरी की शांत, पवित्र और रमणीय भूमि में सत्यावतार गुरु घासीदास का जन्म हुआ। यह भूमि उनके कर्म और साधना से पवित्र हुई, जहाँ से उन्होंने सत्य, अहिंसा और समरसता का दीप प्रज्वलित किया, जो आज भी श्रद्धा का केंद्र है।
महंगुदासो नाम पिता, अमरौतिन मातरं शुभा।
सद्भावनापरिपूर्णौ, भक्तौ धर्मपरायणौ॥४॥
गुरु घासीदास के पिता महंगूदास और माता अमरौतिन धर्मपरायण, सद्भावी और भक्त दंपति थे। उन्होंने पुत्र को सादगी, सेवा और सत्कर्म की शिक्षा दी, जिससे बालक घासीदास में सत्य, करुणा और नैतिकता के संस्कार प्रारंभ से ही पुष्पित हुए।
कृषककुलसमुत्पन्नोऽयं, श्रमशीलो विनीतकः।
बाल्येऽपि ध्यानयुक्तोऽभूत्, सत्यध्यानपरायणः॥५॥
कृषक परिवार में जन्मे गुरु घासीदास श्रमशील, विनम्र और ध्यानशील थे। बाल्यावस्था से ही वे सत्य के ध्यान में लीन रहते, आत्मचिंतन और कर्मयोग के मार्ग पर अग्रसर होकर समाज के लिए आदर्श बने और आत्मज्ञान प्राप्त किया।
लालित्यं मातृकायाः स्यात्, स्नेहं पितृकृते दृढम्।
बालकः सत्यवृत्तेन, लोकस्नेहं समाश्रितः॥६॥
माता के स्नेह और पिता के आदर्श से बालक घासीदास में सत्य, विनम्रता और करुणा का संगम हुआ। उनके सच्चे आचरण और कोमल व्यवहार से लोग प्रभावित हुए और वे धीरे-धीरे लोकप्रिय एवं सत्यनिष्ठ आदर्श बालक के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
बाल्ये स्वप्ने ददर्श सः, दीप्तं ज्योतिरनिर्वृतम्।
यत्र श्रुतं "सतनामोऽहम्", इति ध्वानिः दिव्यदर्शनम्॥७॥
बाल्य में उन्होंने दिव्य स्वप्न में अपूर्व प्रकाश देखा, जहाँ "सतनामोऽहम्" का स्वर्गीय नाद सुनाई दिया। यह अनुभव उनके जीवन का आध्यात्मिक मोड़ बना, जिससे वे सत्य, भक्ति और सतनाम के प्रचार के लिए प्रेरित हुए।
प्रबुद्धो बालकस्तत्र, किं चिद्गम्भीरचित्तवान्।
पृच्छति मातरं स्निग्धं, "किं नाम सत्यं जगन्मया?"॥८॥
प्रकाश के उस अद्भुत दर्शन से बालक घासीदास अंतर्मुख हुए और माता से पूछा — “माँ, जगत का सत्य क्या है?” यह प्रश्न उनके भीतर ज्ञान की ज्योति जलाने वाला क्षण बना, जिसने उनके आध्यात्मिक मार्ग की नींव रखी।
माता तं स्नेहपूर्वं, उवाच धर्मसंहितम्।
“सत्यं पुत्र जीवस्य श्वासो, असत्यं मृत्युशृंखलः।”॥९॥
माता ने प्रेमपूर्वक कहा — “बेटा, सत्य ही जीवन की सांस है, असत्य मृत्यु की जंजीर।” यह वचन गुरु घासीदास के जीवन का मूल मंत्र बना, जिसने उन्हें सत्य और नैतिकता के मार्ग पर स्थिर रखकर मानवता के पथ पर अग्रसर किया।
ततः बालो विचिन्त्यैव, नैव मिथ्यां समीक्ष्य सः।
सत्ये समर्पयामास, स्वप्राणानपि सादरम्॥१०॥
इस दिव्य शिक्षा से बालक घासीदास ने असत्य से सदैव विमुख रहना स्वीकार किया और अपने जीवन को पूर्णतः सत्य के पथ पर समर्पित कर दिया। उनके आचरण में सत्य ही उनका धर्म, साधना और जीवन का सार बन गया।
विप्रैः पूज्यैः तदा दृष्टः, बालकः ध्यानशीलवान्।
ते सर्वे विस्मयं यान्ति, “एष बालो न मानवः!”॥११॥
जब विद्वान ब्राह्मणों ने बालक घासीदास को गहन ध्यान में लीन देखा, तो वे अचंभित हो उठे। उनके तेज, शांति और आत्मसंयम से प्रभावित होकर सबने कहा — “यह कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि ईश्वरप्रदत्त आत्मा है जो सत्य और करुणा का संदेश देने अवतरित हुआ है।”
स्निग्धवाक्यं पितुर्वाक्यं, सदा हृदये निधाय सः।
कर्तव्यं कर्म शुद्धात्मा, सदाचारं समाचरन्॥१२॥
क्रीडायामपि सत्यं तस्य, वाणी स्नेहयुता सदा।
बाल्ये सत्यप्रतिज्ञोऽभूत्, “असत्यं न वदाम्यहम्॥१३॥
ग्रामे ग्रामे चलन् बालः, दीनान् दृष्ट्वा कृपान्वितः।
अन्नं ददाति, वस्त्रं च, सेवामेव परां गतः॥१४॥
सत्यव्रतेन तं दृष्ट्वा, जनाः विस्मयमाययुः।
“अयं च बालो नृपव्रत्तो, नराणां मार्गदर्शकः॥१५॥
कालेन लघुना तस्य, प्रज्ञा पुष्पवत् अभवन्।
सत्यं ब्रह्मेति बोधेन, अभ्युदितं तेजसः शरीरम्॥१६॥
अतीव निर्धनं ग्रामं, संपन्नं कृतवान् गुरुः।
श्रमं मानं च शिक्षां च, योजनां लोककल्यणे॥१७॥
कृषिप्रेम्णा समायुक्तः, भूमिं मातृरूपया ददर्श।
सत्कर्मेण समृद्धिं स्यात्, सत्यं कर्मणि साध्यते॥१८॥
गुरुः स्वप्नेऽपि दृष्टवान्, धवलं ज्योतिरुज्ज्वलम्।
“सत्यं मानवभूषणम्” इति, श्रुत्वा मोक्षमवाप सः॥१९॥
यदा जगत् मोहपाशे, विलीनं तमसाऽवृतम्।
तदा सतनामदीपेन, प्रकाशं दत्तवान् गुरुः॥२०॥
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