श्रीमद् भगवद् गीता 🚩| द्वितीय अध्याय | श्लोक-42, 43
Автор: The SKE Pictures
Загружено: 2025-12-05
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🔱🚩🚩🕉 || Chapter - 2 | Verse - 42, 43 || 🕉🚩🚩🔱
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित: |
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन: || 42||
कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् |
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति || 43||
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वेदों को तीन भागों में विभक्त किया गया है। ये खण्ड हैं-कर्मकाण्ड (धार्मिक अनुष्ठान) ज्ञान काण्ड (ज्ञान खण्ड) उपासना काण्ड (भक्ति खण्ड)। कर्मकाण्ड में भौतिक सुखों को भोगने और स्वर्गलोक की प्राप्ति के उद्देश्य से धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता है। वे लोग जो इन्द्रिय तृप्ति की कामना रखते है; वेदों के इस भाग को महिमामण्डित करते हैं।
स्वर्गलोक में भौतिक ऐश्वर्य और इन्द्रिय तृप्ति के भरपूर साधन उपलब्ध होते हैं। किन्तु स्वर्गलोक की कामना आध्यात्मिक उत्थान के लिए सहायक नहीं होती। स्वर्गलोक में भी मायाबद्ध संसार की तरह राग और द्वेष पाया जाता है और स्वर्ग लोक में जाने के पश्चात् जब हमारे संचित पुण्यकर्म समाप्त हो जाते है तब हमें पुनः मृत्युलोक में वापस आना पड़ता है।
अल्पज्ञानी लोग स्वर्ग की कामना रखते हैं और सोंचते हैं कि वेदों का केवल यही उद्देश्य है। इस प्रकार वे भगवतप्राप्ति का प्रयास न करते हुए निरन्तर जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमते रहते हैं। जबकि आध्यात्मिक चिन्तन में लीन साधक स्वर्ग की प्राप्ति को अपना लक्ष्य नहीं बनाते।
मुण्डकोपनिषद् में वर्णित है
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयंधीराः पण्डितं मन्यमानाः। जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।।
(मुण्डकोपनिषद्-1.2.8)
"जो स्वर्ग जैसे उच्च लोकों का सुख पाने के प्रयोजन से वेदों में वर्णित आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों में व्यस्त रहते है और स्वयं को धार्मिक ग्रंथों का विद्वान समझते हैं वास्तव में वे मूर्ख हैं। वे एक अंधे व्यक्ति द्वारा दूसरे अंधे को रास्ता दिखाने वाले के समान हैं।"
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