वैराग्य संदीपनी | भाग 35 | संत की वाणी:हृदय को भेदकर भय और भ्रम मिटा दे | श्री राघवेन्द्र पाण्डेय जी
Автор: katha:Raghav Kashi
Загружено: 2025-10-15
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📜 दोहा संख्या – 20
"अनुभव सुख उतपति करत, भय-भ्रम धरै उठाइ।
ऐसी बानी संत की, जो उर भेदै आइ॥"
श्री राघवेन्द्र पाण्डेय जी इस भाग में बताते हैं कि संत की वाणी केवल सुनने के लिए नहीं होती —
वह आत्मा को झकझोरने के लिए होती है।
वह न केवल मधुर है, बल्कि भीतर तक प्रवेश कर मन के भय, भ्रम और अज्ञान को मिटा देती है।
👉 तुलसीदास जी कहते हैं:
🔸 संत की वाणी "अनुभव सुख" — अर्थात आत्मानुभूति का सुख — उत्पन्न करती है।
🔸 वह सुनने वाले के हृदय को छूती नहीं, भेद देती है।
🔸 जैसे सूर्य की किरणें अंधकार को चीर देती हैं, वैसे ही संत के शब्द मोह और संशय को भगा देते हैं।
🌿 व्यास जी समझाते हैं:
👉 संत का वचन साधारण नहीं होता; उसमें "जीवित सत्य" का कंपन होता है।
👉 वह भय को मिटाता है, क्योंकि उसमें ईश्वर का नाद छिपा होता है।
👉 और भ्रम को दूर करता है, क्योंकि वह अनुभवजन्य सत्य से निकला होता है।
जब संत बोलता है, तो शब्दों से अधिक अनुभव बोलता है —
जो सीधे आत्मा के द्वार पर दस्तक देता है, और वहाँ से आनंद की धारा बहने लगती है।
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