Part - 1 || 🚩सुंदरकांड पाठ हिन्दी में🚩 || Sunderkand in Hindi ||
Автор: Hanudas 🙏
Загружено: 2023-07-17
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सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड की कथा राजन जी महाराज के द्वारा || Sampoorna Sundarkand ki Katha Rajan Ji
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जामवंत जी के सुहावने वचन सुनकर हनुमानजी को अपने मन में वे वचन बहुत अच्छे लगे और हनुमानजी ने कहा की हे भाइयों ! आप लोग कन्द, मूल व फल खाकर, दुःख सहकर मेरी राह देखना।
जबतक मैं सीताजी को देखकर लौट न आऊँ, क्योंकि कार्य सिद्ध होने पर मन को बड़ा हर्ष होगा। ऐसे कह, सबको नमस्कार करके, रामचन्द्रजी का ह्रदय में ध्यान धरकर, प्रसन्न होकर हनुमानजी लंका जाने के लिए चले।
समुद्र के तीर पर एक सुन्दर पहाड़ था। उसपर कूदकर हनुमानजी कौतुकी से चढ़ गए। फिर बारंबार रामचन्द्रजी का स्मरण करके, बड़े पराक्रम के साथ हनुमानजी ने गर्जना की।
कहते हैं जिस पहाड़ पर हनुमानजी ने पाँव रखकर ऊपर छलांग लगाई थी, वह पहाड़ तुरंत पाताल के अन्दर चला गया जैसे श्रीरामचंद्रजी का अमोघ बाण जाता है, इस प्रकार हनुमानजी वहां से चले।
समुद्र ने हनुमानजी को श्रीराम का दूत जानकर मैनाक नामक पर्वत से कहा की हे मैनाक! तू जा, और इनको ठहरा कर श्रम मिटानेवाला हो।
मैनाक पर्वत की हनुमानजी से विनती :-
समुद्र के वचन कानो में पड़ते ही मैनाक पर्वत वहां से तुरंत उठा और हनुमानजी के पास आकर बारंबार हाथ जोड़कर उसने हनुमानजी को प्रणाम किया।
हनुमानजी ने उसको अपने हाथ से छूकर फिर उसको प्रणाम किया, और कहा की रामचन्द्रजी का कार्य किये बिना मुझको विश्राम कहां है ?
हनुमान जी की सुरसा से भेंट :-
हनुमानजी को जाते देखकर उनके बल और बुद्धि के वैभव को जानने के लिए देवताओं ने नाग माता सुरसा को भेजा। उस नागमाता ने आकर हनुमानजी से यह बात कही।
आज तो मुझको देवताओं ने यह अच्छा आहार दिया। यह बात सुनके हँस कर, हनुमानजी बोले मैं रामचन्द्रजी का काम करके लौट आऊं और सीताजी की खबर रामचन्द्रजी को सुना दूं।
तब हे माता ! मै आकर आपके मुँह में प्रवेश करूंगा, अभी तू मुझे जाने दे। इसमें कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। मै तुझे सत्य कहता हूँ। जब उसने किसी उपाय से उनको जाने नहीं दिया, तब हनुमानजी ने कहा कि तू क्यों देरी करती है? तू मुझको नही खा सकती।
सुरसा ने अपना मुंह एक योजनभर में फैलाया। हनुमानजी ने अपना शरीर दो योजन विस्तारवाला किया। तब सुरसा ने अपना मुँह सोलह योजन में फैलाया। हनुमानजी ने अपना शरीर तुरंत बत्तीस योजन बड़ा कर लिया।
सुरसा ने जैसा—जैसा मुंह फैलाया, हनुमानजी ने वैसे ही अपना स्वरुप उससे दुगना दिखाया। जब सुरसा ने अपना मुंह सौ योजन (चार सौ कोस का) में फैलाया, तब हनुमानजी तुरंत बहुत छोटा स्वरुप धारण कर।
उसके मुंह में घुसकर झट बाहर चले आए। फिर सुरसा से विदा मांग कर हनुमान जी ने प्रणाम किया। उस समय सुरसा ने हनुमानजी से कहा की हे हनुमान! देवताओं ने मुझको जिसके लिए भेजा था, वह तेरा बल और बुद्धि का भेद मैंने अच्छी तरह पा लिया है।
तुम बल और बुद्धि के भण्डार हो, सो श्रीरामचंद्रजी के सब कार्य सिद्ध करोगे। ऐसे आशीर्वाद देकर सुरसा तो अपने घर को चली, और हनुमानजी प्रसन्न होकर लंका की ओर चले ।
छाया को पकड़ने वाले राक्षस से हनुमानजी की भेंट :-
समुद्र के अन्दर एक राक्षस रहता था। सो वह माया करके आकाशचारी पक्षी और जंतुओं को पकड़ लिया करता था। जो जीव—जन्तु आकाश में उड़कर जाता, उसकी परछाई जल में देखकर, परछाई को जल में पकड़ लेता।
जिससे वह जीव—जंतु फिर वहा से सरक नहीं सकता। इस तरह वह हमेशा आकाशचारी जीव जन्तुओं को खाया करता था, उसने वही कपट हनुमान जीसे किया। हनुमान जी ने उसका वह छल तुरंत पहचान लिया।
धीर बुद्धिवाले पवनपुत्र वीर हनुमानजी उसे मारकर समुद्र के पार उतर गए। वहां जाकर हनुमानजी वन की शोभा देखते हैं कि भ्रमर मकरंद के लोभ से गुँजाहट कर रहे हैं।
अनेक प्रकार के वृक्ष फल और फूलों से शोभायमान हो रहे हैं। पक्षी और हिरणों का झुंड देखकर मन मोहित हुआ जाता है। वहां सामने हनुमान एक बड़ा विशाल पर्वत देखकर निर्भय होकर (भय त्यागकर) उस पहाड़ पर कूदकर चढ़ बैठे।
महादेव जी कहते हैं कि हे पार्वती! इसमें हनुमान की कुछ भी अधिकता नहीं है। यह तो केवल एक रामचन्द्रजी के ही प्रताप का प्रभाव है कि जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़कर हनुमानजी ने लंका को देखा, तो वह ऐसी बड़ी दुर्गम है की जिसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता।
पहले तो वह पुरी बहुत ऊँची, फिर उसके चारों ओर समुद्र की खाई। उस पर भी सुवर्ण के कोट का महाप्रकाश कि जिससे किसी के भी नेत्र चकाचौंध हो जावें।
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