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हिंदी भाषा : उदभव और विकास || Hindi Bhasha : Udbhav aur Vikas | Ashok Marde

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Автор: विश्वभाषा हिन्दी

Загружено: 2022-01-20

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Описание: हिंदी भाषा : उदभव और विकास || Hindi Bhasha : Udbhav aur Vikas | Ashok Mard
eहिंदी भाषा उदभव और विकास
हिंदी शब्द की व्युत्पत्ति
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हिंदी शब्द सिंधु शब्द का प्रतिरूप है। ईरान और फारस के निवासी सिंध नदी को हिंद और वहां रहनेवालों को हिंदू कहते थे। उसी के आधारपर सिंधु नदी के आसपास की भूमि को सिंधु कहने लगे। संस्कृत की स ध्वनि फारसी में ह हो जाती है। इसलिए यह सिंधु शब्द आगे चलेकर हिंदु कहा जाने लगा। इस शब्द का विस्तार होता गया और हिंद शब्द भारत का वाचक हो गया और इनकी भाषा हिंदी कहा जाने लगा।
अमीर खुसरों ने फारसी हिंदी कोष में हिंदवी, हिंदुई शब्द प्रयुक्त किया। हिंदवी, रेख्ता, खड़ी बोली, उर्दू, नागरी हिंदी, हिंदुस्तानी, दक्खिीनी आदि हिंदी भाषा के रूप रहे है।
हिंदी भाषा के उद्भव और विकास को समझने के लिए भारतीय आर्यभाषाओं के इतिहास को देखना होगा।
भारतीय आर्यभाषा का विकास
भारतीय आर्यभाषा के विकास के तीन चरण माने जा सकते है।
1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा 1500 ई.पू. से 500 ई.पू. तक
2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा 500 ई.पू. से 1000 ई. तक
3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा 1000 इ. से अब तक

1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (1500 ई.पू. से 500 ई.पू. तक)
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा के दो रूप देखे जा सकते हैै।
वैदिक भाषा - वैदिक भाषा प्राचीन भारतीय आर्य भाषा है। इसे आर्यभाषा की मूल भाषा भी कहा जा सकता है। इस काल का ऋग्वेद प्रमुख गंथ था । ऋग्वेद की भाषा से प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का परिचय हो जाता है। वैदिक भाषा मौखिक थी। पाणिनी ने इस भाषा को व्याकरणिक संस्कार देकर इसे अधिक प्रामाणिक बनाया।
पाणिनी ने वैदिक भाषा को देववाणी नाम दिया । संस्कृत - संस्कृत को वैदिक भाषा का परिष्कृत रूप माना जाता है। क्योंकि संस्कृत में वैदिक भाषा की मूल ध्वनिया उसी प्रकार विद्यमान रही।

संस्कृत भाषा - पाणिनी ने संस्कृत को लौकिक भाषा कहा। जर्मन विद्वान श्लेगेन ने संस्कृत को संसार की सर्वाधिक पूर्ण और उन्नत भाषा कहा । वैदिक भाषा में वर्ण 64 थे लेकिन संस्कृत में वर्णो की संख्या कम हो गई। वैदिक भाषा में शब्दों के अनेक रूप होते थे लेकिन संस्कृत में शब्दों के अधिक से अधिक दो रूप हो गए। इसप्रकार वैदिक भाषा की अपेक्षा संस्कृत अधिक मात्रा में व्याकरणिक नियमों के अनुसार गढती गई। संस्कृत में ही रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ रचे गये। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भारवी, माघ, मम्मट, दंडी आदि संस्कृत के महान विद्वानों ने इस भाषा को समृध्द बनाया।
2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा
संस्कृत के व्याकरणिकता के कारण संस्कृत शिक्षितों की भाषा बनी । लेकिन क्लिष्टता के कारण जनभाषा के समर्थन से वह कुछ मात्रा में दूर रही। परिणामतः जनता के बीच भाषा का अपभ्रष्ट रूप अवतरित होने लगा। तत्कालीन विचारकों ने भी संस्कृत की जटिलता को त्यागकर जनभाषा के प्रयोग को प्राथमिकता दी। जैन तथा बौध्द धर्म के साहित्य में लोकभाषा के अनुकरण पर बल दिया गया।
मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा के तीन चरण है।
1. पालि (600 ई.पू. से प्रथम शती तक)
2. प्राकृत (प्रथम शती से छठीं शती तक)
3. अपभ्रंश (छठी शती से 10 वीं शती तक)

1. पालि - मध्यकालीन आर्यभाषा का पहला चरण पालि का है। 600 ई.पू. से प्रथम शती तक इसका कालखंड माना जाता है। पालि का विकास मध्यकालीन आर्यभाषा मंे पहली बार हुआ। आम लोगों की बोलचाल की भाषा के रूप में संस्कृत का परिर्तित रूप पालि में देखा जा सकता है। साहित्यिक दृष्टि से पाली में भी साहित्य लिखा गया। पालि भाषा का विकास पाटलीपुत्र से माना गया। पालि का प्रथम प्रयोग गौतम बुध्द ने किया था । पालि का लिखित रूप अशोक के शिलालेखांें में मिलता है। गौतम बुध्द के उपदेश पालि में मिलते है। बुध्द के समय पालि लोकभाषा थी।
2. प्राकृत - मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा का दूसरा चरण प्राकृत भाषा का है। पालि के परिवर्तित रूप को प्राकृत कहा जाने लगा। प्रथम शती से छठीं शती तक इसका कालखंड माना जाता है। महावीर जैन के उपदेश तथा ज्ञान दर्शन की भाषा के रूप में प्राकृत अवतरित हुई। प्राकृत का अर्थ है सामान्य लोगों की भाषा। प्राकृत मधुर और ललित भाषा थी।
3. अपभ्रंश - अपभ्रंश को अनेक नामों से जाना जाता है। इसे अवहट्ठ, अव्वभंस, ग्रामीण देसी, अभीरोक्ति, अभीरी भी कहा जाता है। छठी शती से 10 वीं शती तक इसका कालखंड माना जाता है। अपभ्रंश का अर्थ है बिगडा हुआ। कुछ विद्वान अभीरों की भाषा को अपभ्रंश मानते है। प्राकृत के विविध परिवर्तित रूपों से पैशाची अपभ्रंश, अर्धमागधी अपभ्रंश, मागधी अपभ्रंश, शौरसेनी अपभ्रंश और महाराष्ट्री अपभ्रंश आदि अपभ्रंश भाषाएं विकसित हुई।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास 1000 ई. से माना जाता है। अपभ्रंश से भारतीय आर्यभाषा तक के काल को संक्रान्तिकाल कहा जाता है। क्योंकि किसी निश्चित तिथि को अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभााषा नहीं बनती है। अपभ्रंश की कुछ रचनाएं लगभग पंद्रहवीं शती तक मिलती है। अपभ्रंश के विविध क्षेत्रिय रूपों से आधुनिक आर्यभाषाओं का विकास हुआ।
4. महाराष्ट्री - महाराष्ट्र प्राकृत से आधुनिक भाषा मराठी का विकास हुआ। प्राकृत का अधिकांश साहित्य महाराष्टीª में लिखा गया। कुछ लोग इसे महाराष्ट्र की प्राकृत कहते है। प्राकृत की लगभग सारी विशेषताएं महाराष्ट्री में मिलती है। इस काल में शौरसेनी, पैशाची, व्राचड़, महाराष्ट्री, मागधी और अर्धमागधी अपभ्रंश भाषाएं विकसित हुई।

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