हर एक बात पे कहते हो तुम की तू क्या है
Автор: murlie. art
Загружено: 2025-12-05
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हर एक बात पे कहते हो तुम की तू क्या है#Shayari -By Murlie#Mirzagalib#Begamakhtar#Jagjitsingh#
ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले यार होता ,
अगर और जीते रह्ते यही इंतजार होता ।
अब इसका अर्थ निकालिये ।
ऐसी ही कुछ और बाते हैं कई बार हम दो डायरेक्शन में सोचते हैं जैसे यदि एक बात सही है तो उसका उल्टा दूसरी बात गलत होगी। लेकिन इस तरह की शायरी में फ़्रेम आफ़ रिफ़रेंस कुछ इस तरह से चुना गया है कि एक बात गलत है तो उसकी उलट दूसरी बात सही नहीं है । जैसे बेबसी गलत है तो इसका उल्टा हौसला होता है हौसला सही होना चाहिए , ठीक उसी तरह अगर किसी को याद रखना गलत है तो उसे भूल जाना सही होंना चाहिये लेकिन बात के संदर्भ अर्थ बदल देते हैं-
बेबसी जुर्म है हौसला जुर्म है जिंदगी तेरी एक एक अदा जुर्म है ।
याद रखना तुझे मेरा एक जुर्म था भूल जाना तुझे दूसरा जुर्म है।
एक और-
अब वफ़ा कीजिये न जफ़ा कीजिये
आखिरी वक्त है बस दुआ कीजिये।
ऐसे ही बहुत सी खूबसूरत चींजे है ग़ज़ल की दुनिया में बस गहरायी से देखते चलिये-
उनके दर पे पहुंचने तो पायें ये न पूछो की हम क्या करेंगे
अपनी कल्पना करिये और शायर की भावना देखिये
सर झुकाना अगर जुर्म होगा हम निगाहों से सजदा करेंगे ।
क्यों – सर झुकाना क्यों जुर्म होता है और यह कौन सा सजदा है ।
महबूब बुत है जिसे उसने अपनी निगाह में खुदा बना दिया है और बुतपरस्ती जुर्म है अब वह क्या करेगा ।
निगाहों से सजदा ! मेरे दोस्त जरा डूब कर देखो इस खूबसूरत खयाल में । एक और-
अबकी बार पूनम में जब वो आयेगा मिलने
हमने सोच रखा है रात यूँ गुजारेंगे –
(एक पाज है आप अपनी कल्पना कीजिये रात गुजारने की फ़िर शेरे पढियेगा इसकी खूबसूरती देखने के लिये )
धडकनें बिछा देंगे शोख तेरे कदमों में हम निगाह से तेरी आरती उतारेंगे . ।
और भी बहुत कुछ है जरा सुनते रहें –
कदमों में आजायेगा सागर , जुल्फ़ यूँ हीं लहराते रहिये ।
यूँ दिखाता है आँखे हमें बागबा जैसे गुलशन पे कुछ हक हमारा नहीं
मेरे चेहरे से गम आशिकारा नहीं ये न समझो कि मैं गम का मारा नहीं
और एक रंग देखिये
न सोचा न समझा न सीखा न जाना
हमें आ गया खुद ब खुद दिल लगाना
जरा सोच कर अपना जलवा दिखाना
सिमट कर कहीं आ न जाये जमाना
एक बात और लिखनी है-
वही मुंसिफ़ों की रवायतें वही फ़ैसलों की इबारतें
मेरा जुर्म तो कोई और था ये मेरी सजा कोई और है ।
यह सच है कि हमें उस गल्ती की सजा नहीं मिलती जो हुई है बल्की उसके बदले में किसी और तरह से बदला निकालने की कोशिश की जाती है साथ ही उसकी सजा दे भी नहीं पाते जो गलत है। कारण हमारा प्रतिक्रियावादी होंना ।
बात कहीं थमती नहीं है – एक और कह देता हूँ –
हम पानी और आसूँ के फ़र्क को देख लें
मेरी बेजबान आँखो से जो गिरे हैं चंद कतरे
वो समझ सकें तो आसूँ न समझ सकें तो पानी
यह सफ़र कहीं तो रुकना है मैं अपने वायदे के अनुसार , “इसे न था कुछ “पर रोकना चाहूँगा।
न था कुछ तो खुदा था
न होता कुछ तो खुदा होता
डुबोया मुझ को मेरे होंने ने
न होता मैं तो क्या होता ?
हुयी मुद्दत कि मर गया गालिब
मगर याद आता है कहना
कि ये होता तो क्या होता ?
हमारे और खुदा के बीच यह मेरा होंना ही अंतर पैदा करता है जिस दिन अपने न होंने का अहसास हो जाता है आदमीं और खुदा के बीच दूरी खत्म हो जाती है । हुई मुद्दत कि गालिब मर गया- के अलग अलग कई सेंस हैं
एक सीधा अर्थ किसी शायर की मौत है वह भौतिक नहीं होती क्रियाशीलता या आदमीं के भीतर की क्षमता को खत्म होंने से देख सकते हैं या दूसर कि शायर अपने अस्तित्व को खुदा में मिल गया मान रहा है ।
ऐसे ही चलेगा यह सफ़र फ़िर किसी दिन किसी और मोड पर मुलाकात होगी । चलते चलते फ़ैज़ अहमद फ़ैज का यह खूबसूरत शेर लिखता हूँ जरा इसकी गहराई पर नज़र डालिये-
वो तो वो हैं हो जायेगी तुम को भी उल्फ़त मुझ से
एक नजर तुम मेरा मेहबूबे नज़र तो देखो ।
आपने इसे क्या समझा पता नहीं लेकिन शायर कहता है-
यदि उन्हें मुझ से मोहब्बत हो गयी तो कोई बडी बात नहीं है, मैं अपने महबूब को जिस पवित्र नज़रिये से देखता हूँ अगर तुम मेरा महबूब को देखने का नज़रिया ( attitude ) देखोगे तो तुम भी मुझ से मोहब्बत किये बिना नहीं रह सकोगे। (यहाँ खूबसूरती देखने के ऐंगल की है महबूब की नहीं )
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