वैराग्य संदीपनी | भाग 26 | राग-द्वेष से परे संत ही जगत का सहारा | श्री राघवेन्द्र पाण्डेय जी
Автор: katha:Raghav Kashi
Загружено: 2025-08-04
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📜 दोहा संख्या – 16
"सो जन जगत जहाज है, जाके राग न दोष।
तुलसी तृष्णा त्यागि के, गह सील संतोष ॥"
श्री राघवेन्द्र पाण्डेय जी इस दोहे की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि
संत वही है जो स्वयं सांसारिक आकर्षण और विकर्षण से परे हो गया हो।
🔸 राग यानी किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के प्रति आकर्षण,
🔸 दोष यानी द्वेष या विरोध की भावना।
👉 जिसके भीतर ये दोनों नहीं हैं, वही संसार में एक स्थिर, निर्मल जहाज के समान है।
वही संत दूसरों को भी संसार-सागर से पार लगाने की पात्रता रखता है।
तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसा संत तृष्णा (इच्छाओं की आग) को त्यागकर
शील (चरित्र) और संतोष (संतुष्ट जीवन-दृष्टि) को धारण करता है।
🔹 व्यास जी समझाते हैं:
ऐसे संत केवल दूसरों को उपदेश ही नहीं देते,
बल्कि अपने जीवन से भी मार्ग दिखाते हैं।
उनका जीवन ही एक “नाव” बन जाता है —
जिसमें बैठकर साधक अपने भीतर की उठापटक को पार कर सकता है।
👉 वैराग्य का अर्थ केवल त्याग नहीं,
👉 यह है बुद्धिपूर्वक जीना,
जहाँ न आकर्षण हमें बहाए, न विरोध हमें जलाए।
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