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जिसका कब्जा नही वो अब जमीन का मालिक भी नही | supreme Court Ka Aadesh || kanoon House Rent Shop Rent

जिसका कब्जा नही वो अब जमीन का मालिक भी नही

supreme Court Ka Aadesh

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7 अक्टूबर 2025 सुप्रीम कोर्ट का आदेश

Автор: Rb Technical

Загружено: 2025-11-06

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Описание: जिसका कब्जा नही वो अब जमीन का मालिक भी नही | supreme Court Ka Aadesh || kanoon House Rent Shop Rent









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सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए मामला खारिज कर दिया कि जिसका कब्जा नहीं है, वह जमीन का मालिक नहीं है और साथ ही 10 लाख रुपये का जुर्माना भरने का आदेश भी जारी किया।

ऐसा क्या हुआ कि जिस व्यक्ति ने अपनी संपत्ति के लिए केस किया और सुप्रीम कोर्ट ने न केवल उसे संपत्ति नहीं दी बल्कि उस पर 10 लाख का जुर्माना भी लगा दिया,

अब इस मामले पर विस्तार से बात करते हैं। इस संपत्ति का विक्रय पत्र 1989 में तैयार किया गया था। जिस व्यक्ति को संपत्ति लेनी थी, उसने 25,000 रुपये देकर विक्रय पत्र तैयार कर लिया था, जबकि 12 जून 1989 को संपत्ति की कीमत 14,50,000 रुपये थी।

अब हुआ यूँ कि जो व्यक्ति संपत्ति का मालिक था, उसने सामने वाले व्यक्ति को संपत्ति देते हुए कहा, "यह संपत्ति ले लो और मुझे 25,000 रुपये दे दो, बाकी पैसे बाद में दे देना।" लेकिन अब मामला यहाँ से शुरू होता है,

अब 25,000 रुपये देने वाला व्यक्ति, यानि संपत्ति लेने वाला व्यक्ति थोड़ा होशियार था, इसलिए उसने सुप्रीम कोर्ट में केस कर दिया।

किस प्रकार केस किया कि इस प्रॉपर्टी पर अब मेरा कब्जा है, मतलब मैंने इसके लिए 25,000 बयाना राशि दिए हैं, तो अब आपने यह केस किया कि मुझे यहां से कोई बेदखल नहीं कर सकता,

और केस फाइल किया की मुझे यहां से बेदखल करने के लिए कोई नोटिस या केस फाइल न किया जाए इस तरह इसने कोर्ट में केस फाइल कर दिया
इसके बाद दोनों पार्टी ने आमने-सामने कैसे किया
उसके बाद कई सालों तक ये केस चला, कई अदालतों में ये केस चला और आखिर में जब ये केस 4 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट में आया तो सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला दिया
कि इस केस को निपटाने के लिए कोर्टने प्रॉपर्टी लेने वाले व्यक्ति से कहा कि आपने 25000 दिए, अगर आज से 7 अक्टूबर 2025 तक 35 साल हो गए हैं तो उसकी कीमत का 800 गुना दीजिए, यानी 1989 से लेकर 2025 तक, 35 साल बाद कुल दो करोड़ रुपए. कोर्ट ने कहा कि जिसने प्रॉपर्टी ली है, वो प्रॉपर्टी का मालिक है, लेकिन सामने वाला व्यक्ति दो करोड़ रुपए लेने को तैयार नहीं है, उसने कहा कि मुझे सिर्फ ये जमीन चाहिए, उसे 2 करोड़ रुपए नहीं चहिए।

उसके बाद, अपील कर्ता ज़्यादा लालच में, आकर उसने सुप्रीम कोर्ट की बात नहीं मानी और कोर्ट बदलता रहा, अलग-अलग अदालतों में केस करता रहा और खुशकिस्मती से वो केस जीतता भी रहा,

वो इस लिए की उसने ये नहीं दिखाया की कब्ज़ा मेरे पास नहीं है, उसने सिर्फ़ ये दिखाया कि इस प्रॉपर्टी में मेरा हक है, केस एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में आया।

अब तक सुप्रीम कोर्ट भी यही समझता रहा कि कब्ज़ा इसी व्यक्ति के पास है और इसीलिए वो केस जीतता रहा। लेकिन असल में, कब्ज़ा किसी और के पास था जिसने 1989 में ले लिया था।
अब इस मामले को थोड़ा विस्तार से समझते हैं। असल मामला क्या था? 1 अप्रैल, 2025 को प्रतिवादी, यानी संपत्ति खरीदने वाले व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दाखिल की।

जैसा कि मैंने अभी बताया, सुप्रीम कोर्ट ने वादी को दो करोड़ रुपये देने को कहा था। प्रतिवादी तो देने को तैयार भी था, लेकिन वादी, यानी संपत्ति का बेचने वाला व्यक्ति, दो करोड़ रुपये लेने को तैयार नहीं था।
तब कोर्ट ने कहा कि यदि आप दो करोड़ रुपए नहीं लेंगे तो पुलिस वारंट जारी कर दिया जाएगा और कब्जा मुक्त कराकर संबंधित व्यक्ति को सौंप दिया जाएगा।
फिर वादी भी थोड़ा नासमझ निकला। उसने वारंट रद्द करने के लिए अदालत में अर्जी दी। उसके बाद अदालत ने उसे वारंट रद्द करने के लिए चार दिन का समय दिया। उसने कहा,
“तुम्हारे पास चार दिन हैं। तुम दो करोड़ रुपये लेकर उस कब्ज़ा सौंप दो। वरना तुम्हारे खिलाफ फिर से वारंट जारी हो जाएगा।“
चार दिन बाद,भी दो करोड़ रुपये नही लिया अदालत ने दूसरा गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया।
अब मुख्य बात यह है कि 35 साल पहले 25000 की जगह 1 अप्रैल 2025 के फैसले में 2 करोड़ रुपए दिए जाते हैं,
जो सिर्फ इसलिए क्योंकि सुनवाई के समय कब्जे का तथ्य ही नहीं दिखाया गया था
और अब सुप्रीम कोर्ट को पता चल गया था कि आपके पास संपत्ति का कब्जा नहीं है, तो आपको उस पर अधिकार भी नहीं मिलता।

एक समय ऐसा भी था जब आवेदक को दो करोड़ रुपये मिलने वाले थे। 7 अप्रैल 2025 को जब उसने दो करोड़ रुपये नहीं लिए, तो 7 अक्टूबर 2025 को 10 लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया गया। अगर वह भुगतान नहीं कर पाता है,


तो उसे 12% ब्याज भी देना होगा। जीवन में कभी-कभी हमें जो मिलता है, उससे संतुष्ट होकर लेले न चाहिए, वरना कभी-कभी ऐसा भी

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