मानव मात्र का धर्मशास्त्र – ‘गीता’
Автор: Yatharth Geeta - ASHRAM
Загружено: 2017-09-25
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‘गीता’ किसी विशिष्ट व्यक्ति, जाति, वर्ग, पंथ, देश-काल या किसी रूढ़िग्रस्त सम्प्रदाय का ग्रन्थ नहीं है, बल्कि यह सार्वलौकिक, सार्वकालिक धर्मग्रन्थ है। यह प्रत्येक देश, प्रत्येक जाति तथा प्रत्येक स्तर के प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिये, सबके लिये है। केवल दूसरों से सुनकर या किसी से प्रभावित होकर मनुष्य को ऐसा निर्णय नहीं लेना चाहिये, जिसका प्रभाव सीधे उसके अपने अस्तित्व पर पड़ता हो। पूर्वाग्रह की भावना से मुक्त होकर सत्यान्वेषियों के लिये यह आर्षग्रन्थ आलोक-स्तम्भ है। धर्म के नाम पर प्रचलित विश्व के समस्त धर्मग्रन्थों में गीता का स्थान अद्वितीय है। यह स्वयं में धर्मशास्त्र ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मग्रन्थों में निहित सत्य का मानदण्ड भी है। ‘गीता’ वह कसौटी है, जिस पर प्रत्येक धर्मग्रन्थ में अनुस्यूत सत्य अनावृत्त हो उठता है, परस्पर विरोधी कथनों का समाधान निकल आता है।
प्रत्येक धर्मग्रन्थ में संसार में जीने-खाने की कला और कर्मकाण्डों का बाहुल्य है। जीवन को आकर्षक बनाने के लिये उन्हें करने तथा न करने के रोचक और भयानक वर्णनों से धर्मग्रन्थ भरे पड़े हैं। कर्मकाण्डों की इसी परम्परा को जनता धर्म समझने लगती है। जीवननिर्वाह की कला के लिये निर्मित पूजा-पद्धतियों में देश-काल और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन स्वाभाविक है। धर्म के नाम पर समाज में कलह का यही एकमात्र कारण है। ‘गीता’ इन क्षणिक व्यवस्थाओं से ऊपर उठकर आत्मिकपूर्णता में प्रतिष्ठित करने का क्रियात्मक अनुशीलन है, जिसका एक भी श्लोक भौतिक जीवनयापन के लिये नहीं है। इसका प्रत्येक श्लोक आपसे आन्तरिक युद्ध ‘आराधना’ की माँग करता है। तथाकथित धर्मग्रन्थों की भाँति यह आपको स्वर्ग या नरक के द्वन्द्व में फंसाकर नहीं छोड़ता, बल्कि उस अमरत्व की उपलब्धि कराता है जिसके पीछे जन्म-मृत्यु का बन्धन नहीं रह जाता। जहाँ पहुँचकर मानव सदा रहनेवाला जीवन, शाश्वत शान्ति एवं अक्षय आनन्द की अनुभूति करता है।
अत: भगवान श्रीकृष्ण के मुख से नि:सृत वाणी ‘गीता’ के आशय को हृदयंगम करने के लिए ‘गीता’ की यथावत् (ज्यों का त्यों) व्याख्या – ‘यथार्थ गीता’ की तीन से चार आवृत्ति अवश्य करें।
।। ॐ श्री सद्गुरुदेव भगवान की जय ।।
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