राज्यपाल vs चुनी सरकार: संवैधानिक टकराव और 3 महीने की समय सीमा का विवाद | Daily Hindi Editorial UPSC
Автор: Unlock UPSC
Загружено: 2025-11-28
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राज्यपालों द्वारा विधानसभा से पारित विधेयकों को जानबूझकर लंबे समय तक लंबित रखना संवैधानिक नैतिकता और संघवाद के सिद्धांतों को चुनौती देता है। यह सीधे तौर पर जनता द्वारा निर्वाचित विधायिका द्वारा लिए गए निर्णयों के सम्मान की संवैधानिक अपेक्षा के विपरीत है।
संवैधानिक और संघीय विवाद:
संविधान के अनुच्छेद-200 में राज्यपाल से 'यथाशीघ्र' (as soon as possible) कार्रवाई की अपेक्षा की गई है। हालांकि, विलंब स्वयं उस संवैधानिक भावना का उल्लंघन है। विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपालों पर 'बाधा डालने वाली मशीनरी' के रूप में काम करने का आरोप लगा है, जिससे केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव पैदा होता है। झारखंड और कर्नाटक जैसे कई राज्यों में लंबित विधेयकों पर वर्षों से मुकदमेबाजी चल रही है।
सुप्रीम कोर्ट और शक्तियों का बंटवारा:
जब राज्यपाल लंबे समय तक विलंब करते हैं, तो राज्य सरकारें सर्वोच्च अदालत का दरवाज़ा खटखटा सकती हैं। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने तमिलनाडु विधानसभा से पारित 10 विधेयकों को तीन महीने की समयसीमा निर्धारित करके स्वतः मंजूरी दी थी, लेकिन संविधान पीठ ने स्पष्ट किया है कि जजों के आदेश से विधेयकों को स्वतः मंजूर करना संविधान में किए गए शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है।
न्यायपालिका की सीमाएँ और अनुच्छेद 142:
संविधान पीठ के अनुसार, अनुच्छेद-142 के तहत संपूर्ण न्याय देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जजों को असाधारण शक्तियां मिली हैं, लेकिन विधेयकों को स्वतः मंजूरी देकर राज्यपालों के कामकाज में अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अनुच्छेद-142 के दुरुपयोग को परमाणु मिसाइल की तरह खतरनाक बताया था। संविधान पीठ का मानना है कि जज सुपर संसद की तरह काम कर रहे हैं, जो संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है।
समाधान और समयसीमा:
संविधान पीठ का यह भी कहना है कि राज्यपाल को अनिश्चित काल तक विधेयकों को मंजूरी देने से रोकने की शक्ति देना भी संघवाद के सिद्धांत के खिलाफ होगा। इस जटिल समस्या का समाधान करने के लिए, स्रोतों में सुझाव दिया गया है कि संसद को अनुच्छेद-200 और 201 में बदलाव करके राज्यपालों के लिए उचित समयसीमा का निर्धारण करना चाहिए।
राज्यपाल के विकल्प (अनुच्छेद 200):
अनुच्छेद-200 के तहत राज्यपाल के पास तीन विकल्प हैं: विधेयक को मंजूरी देना, राष्ट्रपति के पास भेजना, या आपत्तियों के साथ विधानसभा को पुनर्विचार के लिए वापस भेज देना। हालांकि, धन-विधेयक के मामलों में राज्यपाल को पुनर्विचार के लिए वापस भेजने का विकल्प नहीं होता, उनके पास केवल मंजूरी देने या राष्ट्रपति के पास भेजने के ही दो विकल्प होते हैं।
केंद्र सरकार ने इस विवाद पर अनुच्छेद-143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों पर न्यायिक राय मांगी थी। 1974 के अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की संविधान पीठ ने कहा था कि अनुच्छेद 143 के तहत दी गयी राय सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक फैसलों की तरह बाध्यकारी नहीं है।
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• राज्यपाल बिल मंजूरी समय सीमा
• संवैधानिक नैतिकता (Constitutional Morality)
• सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल फैसला
• संघवाद (Federalism)
• शक्तियों का बंटवारा (Separation of Powers)
• अनुच्छेद 142 (Article 142 misuse)
• राज्यपाल का विलंब (Governor Delay)
• बाधा डालने वाली मशीनरी (Obstructionist Machinery)
• चुनी हुई सरकार बनाम मनोनीत सत्ता
• पेंडिंग बिल विवाद (Pending Bills Dispute)
• संसद संशोधन (Parliament Amendment)
• तमिलनाडु राज्यपाल विवाद
• झारखंड और कर्नाटक लंबित विधेयक
• अनुच्छेद 143 न्यायिक राय
• बीआर गवई फैसला
• यथाशीघ्र (As Soon As Possible)
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