गांव का चरवाह
Автор: Bastar Wale
Загружено: 2025-10-24
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छत्तीसगढ़ के गांवों में चरवाहा (जिन्हें स्थानीय रूप से ग्वाला या राऊत/यादव समाज के लोग कहा जाता है) पारंपरिक रूप से पशुपालन और चराई से जुड़े होते हैं। उनका जीवन पशुओं के इर्द-गिर्द घूमता है।
चरवाहों का पारंपरिक जीवन और कार्य
पारंपरिक जिम्मेदारी: ये समुदाय पीढ़ी-दर-पीढ़ी गायों को चराने और उनका दूध दुहने का काम करते आ रहे हैं। वे गाँव के पशुधन की देखभाल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
दैनिक कार्य:
दिनभर मवेशियों को चरागाह (घास चरने की जगह) या गौठान तक ले जाना।
शाम को या अगली सुबह गाँव लौटकर गायों का दूध दुहना।
'बरवाही' प्रथा: पारंपरिक रूप से, वे गाय चराने के बदले में पशु मालिकों से अन्न या वार्षिक मानदेय लेते थे। इसके अलावा, एक प्रथा थी जिसे 'बरवाही' कहते थे, जिसके तहत ग्वाला हर तीसरे दिन एक दिन का दूध अपने लिए रख लेता था। वे इस दूध को बेचकर या उससे दही, मही (छाछ) और घी बनाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे।
आधुनिक बदलाव और सरकारी पहल
छत्तीसगढ़ सरकार ने चरवाहा समुदाय की मेहनत और आर्थिक स्थिति को समझते हुए बदलाव लाने के प्रयास किए हैं:
मानदेय की शुरुआत: राज्य सरकार ने 'बरवाही' पर निर्भरता कम करने और उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए चरवाहों को निश्चित मानदेय देने का निर्णय लिया है, जिससे उन्हें नियमित आय मिल सके।
गौठान/गौधाम: गौठान (या नई गौधाम योजना) जैसी पहलें पशुधन के वैज्ञानिक संरक्षण और संवर्धन के लिए बनाई गई हैं। इन स्थानों पर पशुओं के लिए चारा और पानी की व्यवस्था होती है, जिससे चरवाहों को पशुओं के पीछे भाग-दौड़ कम करनी पड़ती है और उन्हें आराम करने के लिए भी जगह मिलती है।
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