वैराग्य संदीपिनी | भाग 20 | मृगतृष्णा से मुक्ति का मार्ग| श्री राघवेन्द्र पाण्डेय जी
Автор: katha:Raghav Kashi
Загружено: 2025-07-22
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📜 दोहा संख्या – 14 (दूसरा पक्ष)
"अति अनन्य गति इन्द्री जीता। जाको हरि बिनु कतहुँ न चीता।।
मृग तृष्णा सम जग जिय जानी। तुलसी ताहि संत पहिचानी।।"
इस दूसरे संवाद में श्री राघवेन्द्र पाण्डेय जी तुलसीदास जी के इस दोहे की और गहन परतों को उजागर करते हैं।
वह श्रोताओं को यह स्पष्ट करते हैं कि इन्द्रियाँ ही वह द्वार हैं जिनसे जीव संसार की ओर खिंचता है —
चाहे वह नेत्रों द्वारा रूप, कर्णों द्वारा शब्द, रसना द्वारा स्वाद, त्वचा द्वारा स्पर्श, या मन द्वारा कल्पनाएँ ही क्यों न हों।
🟡 व्यास जी बताते हैं कि इन्द्रियाँ जितनी तीव्र हैं, उतनी ही धोखेबाज़ भी हैं।
वे संसार की वस्तुओं को आकर्षक बनाकर जीव को मोह में बाँध देती हैं।
और जब तक ये इन्द्रियाँ विषयों की ओर दौड़ती रहेंगी,
चित्त स्थिर नहीं हो सकता, हरि में लग नहीं सकता।
🟡 इस भाग में व्यास जी यह भी समझाते हैं कि संसार के हर आकर्षण का अंत दुःख है, क्योंकि वह असत्य है।
माया अपने आप में कुछ नहीं, परंतु इन्द्रियाँ उसे सत्य-स्वरूप बनाकर मनुष्य को भ्रमित कर देती हैं।
🟡 वे बताते हैं कि सच्चा संत वह है जो इस इन्द्रिय-जाल को पहचान लेता है,
और हरि में ऐसा लीन होता है कि उसे किसी और वस्तु की चिंता ही नहीं रहती — "जाको हरि बिनु कतहुँ न चीता"
🟡 माया-मोह से बाहर निकलने का मार्ग केवल एक है:
इन्द्रियों पर संयम
विवेकपूर्ण दृष्टि
हरि-चरणों में अनन्य चित्त
📿 इन्द्रियाँ जहाँ थमीं, वहीं आत्मा जगी। और जहाँ आत्मा जगी, वहीं राम मिले।
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