अछूत शब्द के अर्थ में कालांतर में परिवर्तन
Автор: Samvidhan aur Dharm ka Sach by Adv. KamleshMittra
Загружено: 2025-10-21
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अछूत शब्द और बिछिया परंपरा : चमार समाज की पारिवारिक गरिमा और पुनर्संरचना
भारतीय समाज की जातिगत संरचना में चमार समाज उस श्रेणी में रखा गया, जिसे कभी “अछूत” कहा गया।
परंतु “अछूत” शब्द का मूल अर्थ वह नहीं था जो बाद में ब्राह्मणवादी परंपरा ने बना दिया।
‘अछूत’ का शाब्दिक अर्थ है — “जिसे कोई छू न सके”, अर्थात इतना शुद्ध, मर्यादित और आत्मनियंत्रित कि उसके घर–परिवार की स्त्रियों तक कोई बाहरी व्यक्ति हाथ न लगा सके।
समय के साथ इस शब्द का अर्थ उलट गया — अब “अछूत” का अर्थ बना दिया गया “जिसे छूना नहीं है”।
यह भाषिक विकृति ही सामाजिक शोषण की जड़ बनी, जिसने एक सम्मानित समाज को हीनता में ढकेल दिया।
1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : मर्यादा से हीनता तक
चमार समाज मूलतः श्रम और मर्यादा का प्रतीक रहा है।
ये लोग केवल चमड़ा कार्य से नहीं, बल्कि पशु-पालन, कृषि उपकरण निर्माण और सामाजिक व्यवस्था में श्रम की रीढ़ थे।
उनके पारिवारिक मूल्य, विशेषकर स्त्रियों के प्रति मर्यादा, अत्यंत सशक्त थे।
इसी पारिवारिक अनुशासन को कभी “अछूत” शब्द से सम्मान दिया गया था।
परंतु जैसे-जैसे ऊँची जातियों का प्रभुत्व बढ़ा, “अछूतपन” को अपवित्रता का प्रतीक बना दिया गया।
यह केवल शब्द का विकृतिकरण नहीं था, बल्कि एक पूरे समाज की गरिमा को कमजोर करने की साज़िश थी।
2. बिछिया परंपरा : स्त्री की मर्यादा और सामाजिक संरक्षण
चमार समाज में स्त्री के विवाह का सबसे बड़ा प्रतीक “बिछिया” रही है।
यह केवल गहना नहीं, बल्कि वैवाहिक अधिकार और सम्मान का चिह्न है।
विवाह के समय पति द्वारा बिछिया पहनाई जाती है — यह उसका सामाजिक स्वीकार है कि यह स्त्री अब मेरी धर्मपत्नी है, परिवार की मर्यादा का केंद्र है।
सबसे विशेष बात यह रही कि चमार समाज में विधवा स्त्रियों को कभी परित्यक्त नहीं किया गया।
पति की मृत्यु के तेरहवें दिन, परिवार में यह परंपरा रही कि मृतक का भाई विधवा के पैर में एक बिछिया पहनाता है।
यह संकेत होता है कि अब वह स्त्री परिवार से बाहर नहीं हुई, बल्कि उसी परिवार की सुरक्षा में सम्मिलित है।
यह बिछिया सहपत्नी होने का प्रतीक बनती थी —
परंतु इसका उद्देश्य दैहिक नहीं, बल्कि सामाजिक पुनर्स्थापना और सम्मान था।
3. सामाजिक अर्थ : स्त्री की गरिमा का संरक्षण
यह परंपरा बताती है कि चमार समाज ने स्त्री के जीवन की सुरक्षा और गरिमा को कभी नजरअंदाज नहीं किया।
जहाँ ऊँची जातियों में विधवा को अभिशाप समझा गया, वहीं चमार समाज ने उसे पुनः जीवन जीने का अधिकार दिया।
यह सामाजिक प्रगतिशीलता का प्रमाण है — बिना किसी धार्मिक शास्त्र या विधान के।
परिवार की जिम्मेदारी थी कि कोई स्त्री अकेली या असुरक्षित न रहे।
इसलिए बिछिया केवल विवाह का नहीं, बल्कि जीवन की पुनः स्वीकृति का प्रतीक बन गई।
4. अछूतपन और बिछिया का अंतर्संबंध
“अछूत” और “बिछिया” — दोनों शब्द एक गहरे पारिवारिक दर्शन से जुड़े हैं।
पहला शब्द समाज की मर्यादा और आत्म-संयम को दर्शाता है,
दूसरा शब्द स्त्री की सुरक्षा और सामाजिक पुनर्स्थापना को।
जो समाज अपने परिवार की स्त्रियों को सुरक्षा देता है, वही वास्तव में “अछूत” — अर्थात अस्पर्शनीय मर्यादावान — कहलाने योग्य था।
परंतु जब बाहरी वर्गों ने “अछूत” का अर्थ अपवित्रता से जोड़ दिया, तब उसी समाज की बिछिया जैसी गरिमामयी परंपराएँ भी लुप्तप्राय हो गईं।
5. निष्कर्ष : पुनर्जागरण की आवश्यकता
आज चमार समाज को अपनी मूल परंपराओं के अर्थ को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है।
“अछूत” होना अपमान नहीं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक शुचिता का बोध है।
और “बिछिया” पहनाना केवल वैवाहिक रिवाज़ नहीं, बल्कि स्त्री के सम्मान, सुरक्षा और पुनर्जन्म का प्रतीक है।
यदि इन दोनों मूल्यों को सही अर्थों में समझा जाए —
तो चमार समाज न केवल अपने अतीत की गरिमा को पुनः प्राप्त कर सकता है,
बल्कि भारतीय समाज को एक नया मानवीय मॉडल भी दे सकता है —
जहाँ स्त्री, परिवार और परंपरा तीनों एक-दूसरे के पूरक हों।
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