विश्व साहित्य में ऐसा पद आपको कहीं नहीं मिलेगा
Автор: Radha Govind Mandir, Chandigarh
Загружено: 2022-06-25
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रसमय उपदेश :
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की काव्य रचनाओं में जो रस सिक्त तत्त्वज्ञान भरा है, वह इस बात का द्योतक है कि उनका अपना व्यक्तित्व भक्ति के परमोज्ज्वल स्वरूप से ऊर्जस्वित, जीव कल्याण की करुणामयी भावना से द्रवित एवं श्रीराधा-कृष्ण के अलौकिक प्रेम रस से ओतप्रोत है। भक्तियोगरसावतार की उपाधि प्राप्त श्री कृपालु जी महाराज हमारे वर्तमान विश्व के पाँचवें मूल जगद्गुरु हैं। वेद-शास्त्रों के प्रमाणों पर आधारित उनके सारगर्भित प्रवचन तो वैदिक हिन्दू सनातन धर्म के वास्तविक सिद्धान्त को सरलता एवं स्पष्टता से समझने का प्रमुख आधार हैं ही, उनकी सरस संगीतमय संकीर्तन रचनाएँ भी सिद्धांत ज्ञान से परिपूरित हैं। श्री महाराज जी द्वारा रचित रसमय संगीतात्मक काव्य कृतियों में कितना गहन तत्त्व ज्ञान लबालब भरा है, इसका वास्तविक परिचय तब मिलता है जब वे स्वयं अपने स्वरचित संकीर्तनों की व्याख्या करते हैं। ये बहुत आकर्षक व्याख्याएँ हैं, जिनमें रस (भक्तियोगरसावतार) एवं उपदेश (जगद्गुरूत्तम) का कृपामय सामंजस्य है।
यह वीडियो
'युगल रस' नामक काव्य संग्रह
के एक रसमय संकीर्तन—
'यह अचरज या कान्हा, कान्हा कान्हा कान्हा।'
पर आधारित है, जिसकी सुन्दर व्याख्या
श्री महाराज जी ने दिनांक : 25.08.2000 को
रँगीली महल, बरसाना धाम में की थी।
इसमें श्रीमुख की माधुरी का पान करते-करते सहज ही परमोत्कृष्ट उपदेश साधक के अंतर्मन में उतर जाता है।
इस वीडियो के कुछ अंश हैं—
"श्रुति ने जग स्वामी जेहि माना,
सखिन दास सोइ कान्हा, कान्हा कान्हा कान्हा।
अब नौवाँ आश्चर्य।
श्रुति कहती है, अरे! वो ऐसा भगवान है,
इतनी शक्ति है उसमें, इतने गुण हैं उसमें,
इतनी पॉवर है उसकी कि मैं बता नहीं सकता। वाणी से बता नहीं सकता माने अनन्त।
लिमिटेड को बताया जा सकता है।
दस फुट गहरा पानी, बीस फुट गहरा पानी,
हज़ार फुट गहरा पानी। उसको लोग नाप लेते हैं वैज्ञानिक लोग बड़ी-बड़ी दूरियों को।
सूर्य कितनी दूर है, चन्द्रमा कितनी दूर है,
मंगल ग्रह कितनी दूर है।
सब नाप लिया वैज्ञानिकों ने।
लेकिन अनन्त को कैसे नापें?
उसका तो अन्त ही नहीं है।
लेकिन उसका भी क्या बुरा हाल हुआ हमारे ब्रज में कि सखा लोग उस अनन्त को सांत कर दिये। उसका अन्त। यानी खेल में हरा दिया और घोड़ा बना दिया और उनके कंधे पर बैठ गये।
ये अनन्त शक्तिमान का ये बुरा हाल!
श्रुति ने नेति नेति जेहि माना,
सोइ घोड़ा बन कान्हा, कान्हा कान्हा कान्हा।
ये नौ आश्चर्य हमने लिखे हैं श्यामसुंदर संबंधी।"
—जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज
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कलियुग में दान को ही कल्याण का एकमात्र माध्यम बताया गया है। 'दानमेकं कलौयुगे'।
दान पात्र के अनुसार ही अपना फल देता है तथा भगवान एवं महापुरुष के निमित्त किया गया दान सर्वोत्कृष्ट फल प्रदान करता है।
हम साधारण जीव यथार्थ में यह नहीं जान सकते कि वास्तविक महापुरुष के प्रति किया गया हमारा दान/समर्पण हमारे कल्याण का कैसा अद्भुत द्वार खोल देगा। अतएव, समर्पण हेतु आगे बढिये।
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