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माता सीता को अग्निपरीक्षा क्यूँ देनी पड़ी ?

Автор: Bhakti Sagar

Загружено: 2024-02-03

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Описание: भगवान राम जी विष्णु जी अवतार थे। तो उनको पत्ता था की रावण की मंशा माता सीता का हरण करने की है।यह भी कहा जाता है। कि प्रभु राम ने रावण हरण के पूर्व ही सीता को अग्नि को सौंप दिया था।
एक बार लक्ष्मण जी जब कंदमूल फल लेने वन को गए हुए थे। तब प्रभु श्री राम ने माता सीता से कहा कि “अब मैं नर लीला करूंगा। और जब तक मैं राक्षसों का विनाश करूंगा। तब तक आप अग्नि में निवास करें। ऐसा कहकर श्री राम ने माता सीता को अग्नि देव को सौंप दिया। इसके बाद असली सीता जी की जगह माया की सीता प्रकट हुईं। इस तरह जब सीता जी का हरण हुआ तब वो माया की ही सीता थीं। जब रावण ने बलपूर्वक सीता को पकड़ कर रथ में बिठाया। तो श्रापित रावण को जल कर भस्म हो जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि रावण द्वारा हरी गई। सीता असल नहीं बल्कि माया की सीता थी। जब नलकुबेर की पत्नी अप्सरा, रंभा ने गुस्से में रावण को शाप दिया। कि 'अगर किसी स्त्री की इच्छा के बिना वह उसको स्पर्श करेगा। तो मस्तक सौ टुकड़ों में बंट जाएगा।'
लंका विजय के पश्चात ,जब माता सीता को हनुमान तथा अंगद अशोक वाटिका से। श्रीराम के समक्ष लेकर आए। तब उन्होंने अपने व माता सीता के बीच में अग्नि को प्रज्जवलित कर दिया। व उस अग्नि को लांघकर उनके पास आने को कहा। यह आदेश सुनकर माता सीता ने धधकती अग्नि में प्रवेश किया। जैसे ही माता सीता की परछाई उस अग्नि में समा गई। तथा अग्नि देव असली सीता को लेकर श्रीराम के समक्ष आ गए। तब अग्नि देव ने पुनः माता सीता को श्रीराम को लौटा दिया था। साथ ही यह घटना संपूर्ण वानर सेना के सामने घटित हुई थी।और इस पूरी अग्नि परीक्षा का सिर्फ एक यही कारण था. जिसका उल्लेख रामायण में साफ अक्षरों में मिलता हैं.
मर्यादा पुरुषोत्तम ने माँ सीता की अग्निपरीक्षा कभी ली ही नहीं है। बल्कि वो एक लीला थी राम चरित मानस के अरण्‍य कांड में दोहा 23 ।और लंका कांड में 108 से 109 दोहा, तक इस प्रसंग का वर्णन है।
लक्षिमनहूँ यह मरम न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना।
एक बार जब लक्ष्मण जी भोजन हेतु कंद मूल लेने गए। तो प्रभु ने सीता जी से अग्नि में वास करने को कहा। ताकि वे अपनी आगे की नर लीला कर राक्षसों का नाश कर सके।
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
भावार्थ:-हे प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा। इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ। तब तक तुम अग्नि में निवास करो॥
जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥
भावार्थ:-श्री रामजी ने ज्यों ही सब समझाकर कहा। त्यों ही श्री सीताजी प्रभु के चरणों को हृदय में धरकर अग्नि में समा गईं। सीताजी ने अपनी ही छाया मूर्ति वहाँ रख दी।जो उनके जैसे ही शील-स्वभाव और रूपवाली तथा वैसे ही विनम्र थी॥
लंका विजय के पश्चात भगवान ने अग्नि देव से। लोकाचार में अग्नि प्रज्वलित कर माता सीता जी को वापस लिया.
Jai shree Ram

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