4) श्री योगसार हिंदी हरिगीतिका पद्धानुवाद गाथाएँ Shri Yogsaar Hindi Harigeetika Gatha दोहा 85 से 108
Автор: VJainStro Presented By Vijaya Jain
Загружено: 2018-09-05
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जिन-केवली ऐसा कहें - तहँ सकल गुण जहें आतमा।'
बस इसलिए ही योगीजन ध्याते सदा ही आतमा ।।
तू एकला इन्द्रिय रहित मन वचन तन से शुद्ध हो ।
निज आतमा को जान ले तो शीघ्र ही शिवसिद्ध हो।।
यदि बद्ध और अबद्ध माने बँधेगा निर्धान्त ही।
जो रमेगा सहजात्म में तो पायेगा शिव शान्ति ही ।।
जो जीव सम्यग्दृष्टि दुर्गति-गमन ना कबहूँ करें ।
यदि करें भी ना दोष पूरब करम को ही क्षय करें ।।
सब छोड़कर व्यवहार नित निज आतमा में जो रमें।
वे जीव सम्यग्दृष्टि तुरतहिं शिवरमा में जा रमें ।।
सम्यक्त्व का प्राधान्य तो त्रैलोक्य में प्राधान्य भी।
बुध शीघ्र पावे सदा सुखनिधि और केवलज्ञान भी।।
जहें होय थिर गुणगणनिलय जिय अजर अमृत आतमा।
तहँ कर्मबंधन हों नहीं झर जाँय पूरव कर्म भी ।।
जिसतरह पद्मनि-पत्र जल से लिप्त होता है नहीं।
निजभावरत जिय कर्ममल से लिप्त होता है नहीं।।
लीन समसुख जीव बारम्बार ध्याते आतमा ।
वे कर्म क्षयकर शीघ्र पावें परमपद परमातमा ।।
पुरुष के आकार जिय गुणगणनिलय सम सहित है।
यह परमपावन जीव निर्मल तेज से स्फुरित है ।।
इस अशुचि-तन से भिन्न आतमदेव को जो जानता।
नित्य सुख में लीन बुध वह सकल जिनश्रुत जानता ।।
जो स्व-पर को नहीं जानता छोड़े नहीं परभाव को।
वह जानकर भी सकल श्रुत शिवसौख्य को ना प्राप्त हो।।
सब विकल्पों का वमन कर जम जाय परम समाधि में।
तब जो अतीन्द्रिय सुख मिले शिवसुख उसे जिनवर कहें ।।
पिण्डस्थ और पदस्थ अर रूपस्थ रूपातीत जो।
शुभ ध्यान जिनवर ने कहे जानो कि परमपवित्र हो ।।
जीव हैं सब ज्ञानमय' -इस रूप जो समभाव हो।
है वही सामायिक कहें जिनदेव इसमें शक न हो ।।
जो राग एवं द्वेष के परिहार से समभाव हो ।
है वही सामायिक कहें जिनदेव इसमें शक न हो।।
हिंसादि के परिहार से जो आत्म-स्थिरता बढ़े।
यह दूसरा चारित्र है जो मुक्ति का कारण कहा ।।
जो बढ़े दर्शनशुद्धि मिथ्यात्वादि के परिहार से।
परिहारशुद्धी चरित जानो सिद्धि के उपहार से ।।
लोभ सूक्षम जब गले तब सूक्ष्म सुध-उपयोग हो।
है सूक्ष्मसम्पराय जिसमें सदा सुख का भोग हो ।।
अरहंत सिद्धाचार्य पाठक साधु हैं परमेष्ठी पण ।
सब आतमा ही हैं श्री जिनदेव का निश्चय कथन ।।
वह आतमा ही विष्णु है जिन रुद्र शिव शंकर वही।
बुद्ध ब्रह्मा सिद्ध ईश्वर है वही भगवन्त भी ।।
इन लक्षणों से विशद लक्षित देव जो निर्देह है।
कोई भी अन्तर है नहीं जो देह-देवल में रहे ।।
जो होंयगे या हो रहे या सिद्ध अबतक जो हुए।
यह बात है निर्भ्रांत वे सब आत्मदर्शन से हुए।।
भवदुखों से भयभीत योगीचन्द्र मुनिवर देव ने।
ये एकमन से रचे दोहे स्वयं को संबोधने ।।
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