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ढाल 02 Class 2.16 पहले देव शास्त्र गुरु पर श्रद्धा करें फिर सम्यग्दर्शन की बात करें छंद - 6

Автор: Muni Shri Pranamya Sagar Ji Ke Bhakt

Загружено: 2025-12-24

Просмотров: 1235

Описание: ओं अर्हं नमः
आइये आज की कक्षा का quick revision कर लेते हैं।

सम्यग्दर्शन के वर्णन में आज हमने जाना
पहले व्यवहार होता है, निश्चय बाद में आता है।
व्यवहार सम्यग्दर्शन से ही निश्चय सम्यग्दर्शन की भूमिका बनती है।
इसके विपरीत वीतराग विज्ञान पहले वीतरागता को रखता है जो निश्चय रूप होता है।
जबकि आचार्यों ने जैसे आचार्य जयसेन महाराज ने समयसार की टीका में सराग को पहले बताया है और वीतराग को बाद में।
भरत, सगर आदि चक्रवर्ती व्यवहार सम्यग्दृष्टि रूप में ही थे
जब वे निर्ग्रन्थ मुनि बनते हैं तब निश्चय सम्यग्दृष्टि कहे गए हैं।

भगवान का दिया हुआ ज्ञान हम अपनी बुद्धि की क्षमता के अनुसार ही भर पाते हैं
बाकि सब हमसे छूट जाता है।
केवली और श्रुत केवली के बाद अनेक आचार्य हुए जिन्होंने ज्ञान को संरक्षित किया।
उन्होंने कलिकाल में भी श्रुत ज्ञान का प्रवाह बनाकर रखा है।
अगर भगवान् के ज्ञान को आगे बढ़ाने वाले ये नहीं होते तो हम तक कुछ नहीं आता।
हमें इस गुरु परम्परा से ही ज्ञान मिला है।
हममें उनके प्रति धन्यता का भाव होना चाहिए।
उस गुरु परंपरा का स्मरण करना भी गुरु भक्ति, गुरु का श्रद्धान कहलाता है।

छन्द सात में हमने इन सद्गुरुओं का रूप जाना-
श्रुत केवलि की परंपरा पंचम काल में चली।
महावीर भगवान के लगभग साढ़े तीन वर्ष बाद पंचम काल शुरू हुआ
महावीर भगवान के छह सौ तिरासी(683) वर्ष तक पूर्ण श्रुत ज्ञानी थे
उसके बाद श्रुत ज्ञान में कमी आती गई।
चौदह पूर्व से दस पूर्व का, उससे नौ पूर्व का ज्ञान रहा
और घटते-घटते एक पूर्व में भी बस अङ्ग तक रह गया।
आचार्य कुंदकुंद, आचार्य समंतभद्र आदि साधु पंचम काल में होते आए हैं।
ये सद्गुरु आरंभ से, हिंसा के कार्यों से और परिग्रह से रहित होते हैं,
ध्यान और ज्ञान में, सत्य आचरण में लगे रहते हैं,
और विषयों से विरक्त होते हैं।
हमें इनके प्रति नतमस्तक होना चाहिए।

यह तीन विशेषता वाले ही भावलिंगी मुनि कहलाते हैं।
भावलिंगी मतलब वे जिन्होंने ख्याति, पूजा, लाभ की इच्छा न करके,
कर्म क्षय के लिए, सम्यग्चारित्र और रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए
इस लिंग को धारण किया हो।
जो बिना ज्ञान के, बिना सम्यग्दर्शन के तप करते हैं उन्हें द्रव्य लिंगी कहा जाता है
द्रव्यलिंगी, भावलिंगी की अलग से और कोई पहचान नहीं होती।
किसका कौन सा गुणस्थान आदि हमारे ज्ञान के विषय नहीं हैं।

यह परम्परा भावलिंगी मुनियों की चली आई है।
ये आत्मज्ञानी और चारित्रवान होते हैं
इनमें आत्मा का ज्ञान, ध्यान करने की कला होती है।
ये गुरु और आगम की आज्ञा से बंधे होते हैं,
उससे विपरीत कोई चर्या नहीं करते,
यही इन मुनि महाराजों का सम्यग्दर्शन होता है।
ऐसे अनेक जीव हुए हैं।
कुछ प्रमुख आचार्यों के नाम तो पढने में आते हैं, लेकिन अनेक साधकों के हमें नाम भी नहीं पता।
लेकिन हमारी श्रद्धा में ये सभी आने चाहिए
‘एकाध ही कोई सम्यग्दृष्टि होता है’ - इस तरह की धारणा बनाकर हमें अन्धा नहीं बनना चाहिए।
Muni Shri Pranamya Sagar Ji Maharaj
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