जन्मकुंडली में राहु एवं केतु का विभिन्न भाव में फल
Автор: Astrovedvani
Загружено: 2025-08-13
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Описание: पौराणिक ग्रंथों एवं ज्योतिष में राहु, केतु को छाया ग्रह माना गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राहु, केतु के कारण ही ग्रहण लगते हैं। धर्मशास्त्रों की मानें तो सूर्य, चन्द्रमा के अत्यधिक नज़दीक होने पर राहु, केतु ग्रहण लगा देते हैं, यही नहीं सूर्य, चन्द्रमा को छोड़कर जन्मकुण्डली में अन्य ग्रह भी राहु के साथ बैठे हों, तो वे भी राहु से पीड़ित हो जाते हैं। राहु-केतु का अक्ष जन्मपत्रिका में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कुछ विद्वानों ने इस अक्ष के एक ओर सभी ग्रहों के होने पर तथा इसी अक्ष के दूसरे भाग में कोई भी ग्रह न होने पर कालसर्प योग की कल्पना की है। यद्यपि प्राचीन होरा ग्रंथों में कालसर्प योग नाम का किसी भी योग का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं प्राप्त होता है, परन्तु राहु, केतु के प्रभाव एवं कालसर्प योग के प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता।राहु, केतु को पौराणिक दृष्टि से दो अलग-अलग छाया ग्रह माने गए हैं, राहु को मुख और केतु को धड़ के रूप में अलग-अलग होने की बात का शास्त्रीय वर्णन प्राप्त होता है। राहु की उत्पत्ति के विषय में पौराणिक आख्यान है कि कश्यप ऋषि के पुत्र हिरण्यकश्यपु थे, कश्यप ऋषि की दो पत्नियां अदिति और दिति थीं। अदिति से देवताओं तथा दिति से दानवों की उत्पत्ति हुई। हिरण्यकश्यपु के पुत्र प्रहलाद थे तथा इनकी पुत्री का नाम सिंहिका था। सिंहिका के पति विप्रचिति थे, इन्हीं से सिंहिका का पुत्र हुआ जिसका नाम ‘स्वर्भानु’था। यह स्वर्भानु नामक दानव ही आगे चलकर राहु और केतु में विभाजित हुआ। बात उस समय की है जब देवत्व तथा अमरत्व प्राप्त करने के लिए स्वर्भानु ने भगवान शंकर का कठोर तप किया, भगवान शंकर ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर कहा कि, उसे देवत्व तो प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि वह असुर कुल में जन्मा है परन्तु वह अमर होकर देवताओं के साथ पूजा जाएगा। देवयोग से उसी के बाद समुद्र मंथन के समय चौदह रत्नों में एक अमृत कलश भी निकला, अमृत पीने के लिए देवता और दानव, दोनों ही लालायित थे।जब स्वर्भानु ने देखा कि अमृत देवताओं को पिलाया जा रहा है, तो वह भेष बदलकर देवताओं की पंक्ति में देवताओं के रूप में बैठ गया और अमृतपान करने लगा, जैसे ही अमृत की कुछ बूंदें स्वर्भानु ने ग्रहण की, तभी सूर्य, चन्द्रमा ने देवता के रूप में छुपे स्वर्भानु दानव को पहचानकर तुरन्त ही विष्णु भगवान, जो मोहिनी रूप धारण कर अमृत पिला रहे थे, उनके सुदर्शन चक्र से उसका गला कटवा दिया। अमृत की कुछ बूंद पिए जाने के कारण वह मृत्यु को तो प्राप्त नहीं हुआ, अपितु सिर व धड़ दोनों ही अलग-अलग जीवित रहे। सिर का हिस्सा राहु और धड़ का हिस्सा केतु बन गया। किंवदन्ति है कि समय बीतने पर भगवान विष्णु द्वारा उसका धड़ सर्प से जोड़ दिया गया, इसलिए राहु, केतु सर्पाकृति के हो गए तथा पूर्व में प्राप्त वरदान अनुसार अमृत पान के कारण अमर हो गए, ब्रह्मा जी ने उन्हें (छाया) ग्रह का दर्जा दे दिया।
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