73- श्री चैतन्य चरितावली || हाहाकार || CHAITNYA MAHAPRABHU || CHAITANYA CHARITAWALI || NIMAI
Автор: sanatan vaani
Загружено: 2025-06-30
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श्री चैतन्य चरितावली || हाहाकार || CHAITNYA MAHAPRABHU || CHAITANYA CHARITAWALI || NIMAI
हाहाकार
निद्रामें पड़ी हुई विष्णुप्रियाजीने करवट बदलीं। सहसा वे चौक पड़ीं और जल्दीसे उठकर बैठ गयीं। मानो उनके ऊपर चौड़े मैदानमें बिजली गिर पड़ी हो, अथवा सोते समय किसीने उनका सर्वस्व हरण कर लिया हो। वे भूली-सी, पगली-सी, बेसुधि-सी, आँखोंको मलती हुई चारों ओर देखने लगीं। उन्हें जागते हुए भी स्वप्नका-सा अनुभव होने लगा। वे अपने हाथोंसे प्रभुकी शय्याको टटोलने लगीं, किंतु अब वहाँ था ही क्या! शुक तो पिंजड़ा परित्याग करके वनवासी बन गया। अपने प्राणनाथको पलंगपर न पाकर विष्णुप्रियाजीने जोरोंके साथ चीत्कार मारी और 'हा नाथ! हा प्राणप्यारे ! मुझ दुःखिनीको इस प्रकार धोखा देकर चले गये।' यह कहते-कहते जोरोंसे नीचे गिर पड़ीं और ऊपरसे गिरते ही बेसुधि हो गयीं। उनके क्रन्दनकी ध्वनि शचीमाताके कानोंमें पड़ी। उनकी उस करुणक्रन्दनसे बेहोशी दूर हुई। वहीं पड़े-पड़े उन्होंने कहा- 'बेटी! बेटी ! क्या मैं सचमुच लुट गयी? क्या मेरा इकलौता बेटा मुझे धोखा देकर चला गया? क्या वह मेरी आँखोंका तारा निकलकर मुझ विधवाको इस वृद्धावस्थामें अन्धी बना गया ? मेरी आँखोंके दो तारे थे। एकके निकल जानेपर सोचती थी, एक आँखसे ही काम चला लूँगी। आज तो दूसरा भी निकल गया। अब मुझ अन्धीको संसार सूना-ही-सूना दिखायी पड़ेगा। अब मुझ अन्धीकी लाठी कौन पकड़ेगा? बेटी! विष्णुप्रिया ! बोलती क्यों नहीं? क्या निमाई सचमुच चला गया?' विष्णुप्रिया बेहोश थीं, उनके मुखमेंसे आवाज ही नहीं निकलती थी। वे सासकी बातोंको न सुनती हुई जोरोंसे रुदन करने लगीं। दुःखिनी माता उठी और लड़खड़ाती हुई प्रभुके शयन-भवनमें पहुंचीं। वहाँ उसने प्रभुके पलंगको सूना देखा। विष्णुप्रिया नीचे पड़ी हुई रुदन कर रही थीं। माताकी अधीरताका ठिकाना नहीं रहा। वे जोरोंसे रुदन करने लगीं- 'बेटा निमाई! तू कहाँ चला गया? अरे, अपनी इस बूढ़ी माताको इस तरह धोखा मत दे। बेटा! तू कहाँ छिप गया है, मुझे अपनी सूरत तो दिखा जा। बेटा! तू रोज प्रातःकाल मुझे उठकर प्रणाम किया करता था। आज मैं कितनी देरसे खड़ी हूँ, उठकर प्रणाम क्यों नहीं करता!' इतना कहकर माता दीपकको उठाकर घरके चारों ओर देखने लगीं। मानो मेरा निमाई यहीं कहीं छिपा बैठा होगा। माता पलंगके नीचे देख रही थीं। बिछौनाको बार-बार टटोलतीं, मानो निमाई इसीमें छिप गया। वृद्धा माताके दुःखके कारण काँपते हुए हाँथोंसे दीपक नीचे गिर पड़ा और वे भी विष्णुप्रियाके पास ही बेहोश होकर गिर पड़ीं और फिर उठकर चलनेको तैयार हुईं और कहती जाती थीं- 'मैं तो वहीं जाऊँगी जहाँ मेरा निमाई होगा। मैं तो अपने निमाईको ढूँढूंगी, वह यदि मिल गया तो उसके साथ रहूँगी, नहीं तो गंगाजीमें कूदकर प्राण दे दूँगी।' यह कहकर वे दरवाजेकी ओर जाने लगीं। विष्णुप्रियाजी भी अब होशमें आ गयीं और वे भी माताके वस्त्रको पकड़कर जिस प्रकार गौके पीछे उसकी बछिया चलती है, उसी प्रकार चलने लगीं। वृद्धा माता द्वारपर भी नहीं पहुँचने पायीं कि बीचमें ही मूर्छित होकर गिर पड़ीं।
इतनेमें ही कुछ भक्त उषा-स्नान करके प्रभुके दशनोंके लिये
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