महाभारत के युधिष्ठिर की एक अनसुनी और अत्यंत दुर्लभ कथा
Автор: The Disha vlogs
Загружено: 2025-12-13
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दोस्तों, महाभारत के पात्रों में युधिष्ठिर का नाम आते ही हमारे मन में धर्म, सत्य, और न्याय की प्रतिमूर्ति उभरती है। लेकिन आज जो कथा मैं आपके लिए लेकर आया हूँ, वह आपको युधिष्ठिर के एक ऐसी छवि से रूबरू कराएगी, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं — एक ऐसा युधिष्ठिर जो किसी राजा, योद्धा या धर्मराज नहीं, बल्कि एक संघर्षशील मनुष्य के रूप में दिखाई देता है।
यह वह कथा है जिसमें युधिष्ठिर पहली बार अपने भीतर उठते गुस्से, दुविधा, संदेह, और आत्मग्लानि से लड़ते हैं। यह कथा उनके वनवास के गहरे जंगलों, मनोमंथन, और एक दिव्य परीक्षा पर आधारित है, जिसे आमतौर पर महाभारत की मुख्य धारा में विस्तार से नहीं बताया जाता।हस्तिनापुर की सभा में द्रौपदी के चीरहरण, पांडवों के अपमान और अपने परिवार को दांव पर हार जाने के बाद जब युधिष्ठिर वनवास के लिए निकल रहे थे, तब वे बाहर से जितने शांत दिखते थे, भीतर से उतने ही टूटा हुआ महसूस कर रहे थे।
एक रात जब पांडव सब सो गए, युधिष्ठिर अकेले बैठे अपनी गलती पर विचार कर रहे थे।
उन्होंने सोचा:
“क्या मैं धर्मराज हूँ? या मैं अपने परिवार का विनाशक हूँ?
क्या मेरा धर्म उन्हें दुख दे रहा है?
क्या मैंने धर्म की बजाय अंधा कर्तव्य निभाया?"
यह पहला अवसर था जब उन्होंने अपने धर्म पर स्वयं प्रश्न उठाया। यह संदेह उन्हें भीतर तक हिला देता है।
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